पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/६४९

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६२८ वायुपुराणम् द्विरदो द्विरदाभ्यां च हस्ताद्वस्ती करात्करी | वरणाद्वारणो दन्ती दन्ताभ्यां गर्जनाद्गजः ॥२३३ कुञ्जरः कुञ्जचारित्वान्नागो नगविरोधतः । मत्वा यातीति मातङ्गो द्विपो द्वाभ्यां पिवन्स्मृतः ॥ सामजः सामजातत्वादिति निर्वाचनक्रमः ॥२३४ एषां जिह्वापरावृत्तिरि (र) वाक्त्वं ह्यग्निशापजम् । वलस्यानवतो या तु या चैषां गूढमुष्कता ॥ उभयं दन्तिनामेतत्स्वयंभूसुरशापजम् ॥२३५ ॥२३६ ॥२३७ देवदानवगन्धर्वाः पिशाचोरगराक्षसाः | कन्यासु जाता दिङ्नागर्नानासत्त्वास्ततो गजाः संभूतियच प्रसूतिश्च नामनिर्वचनं तथा । एतद्गजानां विज्ञेयं येषां राजा विभावसुः कौशिकाद्याः समुद्रात्तु गङ्गायास्तदनन्तरम् | अञ्जनस्यै कसूलस्य प्राच्यान्नागवनं तु तत् उत्तरा तस्य विन्ध्यस्य गङ्गाया दक्षिणं च यत् । गगोदारूषेभ्यः सुप्रतीकस्य तद्वनम् ॥२३६ अपरेणोत्कलाच्चैव ह्यावेदिभ्यश्च पञ्चमम् । एकभूतात्मजस्यैतद्वा मनस्य वनं स्मृतम् ॥२३८ ॥२४० से विरोध करने के कारण नाग, मतङ्गर से उत्पन्न होने के कारण मातंग, दोनों (मुख और गुण्ड) से पान करने के कारण द्विप तथा सामवेद के गान् से उत्पन्न होने के कारण ये सामज नाम से स्मरण किये जाते हैं यह इनको निरुक्ति का क्रम है |२२६-२३४० इन हस्तियों की जिह्वा जो पीछे की ओर लोटी रहती है, और बोलने की शक्ति इनमें नहीं पायी जाती, वह अग्नि के शाप के कारण है । और हस्तियों के जो बल को अनूतनता (स्फूर्ति का अभाव) तथा इनके लिग एवं अडकोष का छिपा रहना —— ये दोनों भी स्वयम्भू ब्रह्मा एवं सुरगणों के शाप के कारण हैं | देवता, दावन, गन्धर्व, पिशाच, सर्प एवं राक्षस - ये सब जिन कन्याओं मे उत्पन्न हुये उन्हीं में दिग्गजों के संयोग से हस्तियों की उत्पत्ति हुई जिससे वे विपुल पराक्रमी हुये । इन गजों की उत्पत्ति, प्रभाव, अनेक नाम पड़ने के कारण आदि को कथा यही जाननी चाहिये (जिसे ऊपर कह चुका ) । इन सब का राजा विभावसु है । पूर्व दिशा में कौशकी से लेकर समुद्र पर्यन्त एवं उसके उपरान्त समुद्र तट से गंगा तक जो जंगल है; वह एक मात्र अञ्जन नामक हस्ती एवं उसके वश में उत्पन्न होनेवाले का है | २३५-२२८॥ विन्ध्य गिरि के उत्तर से लेकर गङ्गा के दक्षिण ओर तक; तथा गङ्गा के उद्गम स्थल से लेकर करुप देश तक सुप्रतीक नामक गज का जंगल है । उत्कल ( उड़ीसा ) प्रान्त के पश्चिमी छोर से लेकर वेदि ३. आनन्दाश्रम की प्रति में 'मत्वा यातीति मातङ्गः' जिसके अनुसार यह अर्थ होगा कि मान कर चलता है, इसलिये मातंग नाम है, पर अन्य प्रतियों के "मतंगादिति मातंग:" पाठ से ऊपर का अर्थ निकलता है, जो अन्य कथाओं से मिलती जुलती है । और इस सम्बन्ध से मातंग नाम की निरुक्ति भी समीचीन एवं सर्वसम्मत होती है | अत: 'मतंगादिति मातंग:' पाठ युक्तियुक्त प्रतीत हो रहा है ।