पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/६९३

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६७२ वायुपुराणम् ॥५१ ॥५४ ॥५५ ॥५८ दत्तं स्वधां पुगेधाय तथा प्रोणाति नै पितॄन् । सोमस्याऽऽप्यायनं कृत्वा ह्यग्नैर्वैवस्वतस्य च उदगायनं चाग्नौ च अश्वमेधं तदाप्नुयात् । पितॄन्त्रोणाति है भक्त्या पितरः भोजयन्ति तम् पितरः पुष्टिकाभस्य प्रजाफामस्य वा पुनः | पुष्टि प्रजां च स्वर्गं च प्रयच्छन्ति न संशयः देवकार्यावपि सदा पितृकार्य विशिष्यते | देवतास्यः पितॄणां हि पूर्वाप्यायनं स्मृतम् न हि योगगतिः सूक्ष्मा पितॄणामपि तृप्तयः | तपसा हि प्रसिद्धेन दृश्यन्ते मांसचक्षुषा इत्येते पितरश्चैव लोका दुहितरच वै । दौहित्रा यजमालाश्च प्रोक्ता चे भावयन्ति तान् चत्वारो मूर्तिमन्तश्च त्रयस्तेषाममूर्तयः । तेभ्यः श्राद्धानि सत्कृत्य देवाः कुर्वन्ति यत्नतः भक्ताः प्राञ्जलयः सर्वे सेन्द्रास्तद्गतमानसाः । विश्वे च सिताश्चैव पृश्निजाः सृङ्गिन (ण) स्तथा ॥ कृष्णाः श्वेतास्त्वजाश्चंव विधिवत्पूजयन्त्युत | प्रजास्ता वातरशना दिवाफोर्त्यास्तथैद च लेखाव सरुतश्चैव ब्रह्माद्याश्च विवौकसः | अत्रिभृग्वाङ्गिराद्याश्च ऋषयः सर्व एव च यक्षा नागाः सुपर्णाश्च किनरा राक्षसैः सह । पितृ स्त्वपूजयन्सर्वे नित्यमेव फलार्थिनः ॥५६ ॥६० ॥६२ ॥६३ ॥६४ चाँदी के बने हुये अथवा मिश्रित चाँदी के बने हुये पात्रो मे रखकर पितरो के उद्देश्य से पुरोहित को दी गई स्वचा पितरो को प्रसन्न करती है | सोम, अग्नि एवं सूर्यपुत्र मनु को स्वधादि से खूव सन्तुष्ट करके तथा सूर्य के उत्तरायण के अवसर पर अग्नि मे हवनादि करके अश्वमेध के फल की प्राप्ति होती है। जो भक्ति पूर्वक पितरो को श्राद्धादि से प्रसन्न करता है, उसे पितरगण भी सन्तुष्ट एव प्रसन्न करते हैं |५० - ५३ | पुष्टि ( वृद्धि) अथवा प्रजा (पुत्र पौत्रादि) की कामना करनेवालो के पितरगण पुष्टि, प्रजा एव स्वर्ग को प्रदान करते है, इसमे सन्देह नही । पितरो के उद्देश से किये जाने वाले श्राद्धादि कार्य देवताओ के उद्देश्य से किये जानेव ले यज्ञादि कार्यों से भी अधिक फलदायी है । देवताओं से पहिले पितरों को सन्तुष्ट करना चाहिये - ऐसा प्रसिद्ध है | पितरो की येह् सूक्ष्म योग गति और तृप्ति मांस के नेत्र से नही देखी जा सकती, तपस्या द्वारा विशेष सिद्धि प्राप्त करने पर ही उनकी इस गति एवं तृप्ति का दर्शन हो सकता । इन उपर्युक्त पितरगणो उनके लोक, उनकी कथाएँ, उनके दोहित्र, उनके यजमान एवं उनको भावना करने वाले सब का वर्णन कर चुका | इन मे (जैसा कि ऊपर भी कई वार कह चुके हैं) चार मूर्तिवारी है, और तीन अमूर्त हैं | देवगण प्रत्येक यत्न से सत्कारपूर्वक उन सब का श्राद्ध करते है ।५४-६० । इन्द्र समेत वे समस्त देवगण इन पितरों मे मन लगाकर, हाथ जोड़कर उनके श्राद्धादि कार्य सम्पन्न करते है । इनके साथ समस्त विश्वेदेवगण, सिकता, पृग्निज, शृङ्गिन, कृष्ण, श्वेत, अज आदि भी इन पितरों की विधिवत् पूजा करते है । वातरगन, दिवाकीत्यं नामक प्रजाये, लेख, मरुत, ब्रह्मा आदि देवगण, अत्रि भृगु अंगिरा आदि समस्त ऋषिगण, यक्ष, नाग सुपर्ण, किन्नर एवं • शुभ फल प्राप्ति के इच्छुक होकर नित्य ही इन पितरो की पूजा करते है |६१-६४। श्राद्धादि में राक्षस, ये सभी