पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/७३१

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वायुपुराणम् कृतकर्माक्षितास्त्वेते ब्रह्मघ्नश्च कृतघ्नश्च कुपथाः परिकीर्तिताः । एभिनिवृत्तं वा श्राद्धं वृथा गच्छति मानवान् नास्तिका गुरुतल्पगाः | दस्यवश्च नृशंसाश्च दर्शनेनैव वर्जिताः ये चान्ये पापकर्माणः सर्वांस्तान्परिवर्जयेत् | देवदेवर्षिनिंदायां रताश्चैव विशेषतः असुरान्यातुधानांश्च दृष्टमेभिर्व्रजन्त्युत । ब्राह्मं कृतयुगं प्रोक्तं त्रेता तु क्षत्रियं स्मृतम् ॥ वैश्यं द्वापरमित्याहुः शूद्रं फलियुगं स्मृतम् ७१० पितर ऊचुः वैदाः कृतयुगे पूज्यास्त्रेतायां तु सुरास्तथा । युद्धानि द्वापरे नित्यं पाषण्डाश्च कलौ युगे अपमानापवित्रश्च कुक्कुटो ग्रामसूकरः । वा चैव दर्शनादेव हन्ति श्राद्धं न संशयः शावसूतकसंसृष्टो दीर्घरोगिभिरेव च । मलिनैः पतितैश्चैव न द्रष्टव्यं कथंचन अनं पश्येयुरेते वै नैतत्स्याद्धव्यकव्ययोः | तत्संस्पृष्टं प्रधानार्थं संस्कारश्वापदो भवेत् हविषां संहतानां तु पूर्वमेव विवर्जनम् । मृत्संयुक्ताभिरद्भिश्च प्रोक्षणं च विधीयते ॥३३ ॥३४ ॥३५ ॥३६ ॥३७ ॥३८ ॥३ ॥४० ॥४१ सम्पन्न श्राद्धकर्म पितरों लिये व्यर्थ हो जाते है | ब्रह्महत्या करनेवाले, कृतघ्न, नास्तिक, गुरु पत्नी गामी दस्यु, नृशंस, आत्मतत्त्वज्ञान से वंचित, गवं अन्यान्य जो पापकर्म परायण लोग हैं, उन्हें सबको श्राद्धकर्म में वर्जित रखना चाहिये ॥३२-३४| विशेषतया देवताओं एवं देवर्षियों को निन्दा में निरत रहने वाले जो लोग हों, उन्हें भी वर्जित रखना चाहिये । इसी प्रकार असुरों एवं यातुधानों को भी श्राद्ध कर्म में वर्जित रखना चाहिये । इन उपर्युक्त लोगों द्वारा देखा गया श्राद्धकर्म निष्फल हो जाता है । सतयुग को ब्राह्मणों का युग कहा गया है, त्रेता क्षत्रियों का युग कहा जाता है, द्वापर वैदयों का युग है, इसी प्रकार कलियुग शूद्रों का युग कहा गया है |३५-३६। पितरगण बोले:- सतयुग में वेदों को पूजा होती थी, त्रेतायुग में देवगण पूज्य माने जाते थे । द्वापर में लोगों को युद्ध प्रिय था, कलियुग में लोगों की पाषण्ड में सर्वदा रुचि रहती है ॥३७॥ अपमानित एवं अपवित्र लोम, कुक्कुट (मुर्गे) ग्राम्य सुअर, और कुत्ता- इनके तो केवल दर्शन से श्राद्ध नष्ट हो जाता है—इसहैं सन्देह नही १३८१ बच्चो का सूतक जिनके घर में हो, दीर्घकाल से जो रोग ग्रस्त हो, म एवं पतित विचारों वाला हो, इनको किसी प्रकार भी श्राद्धकर्म नहीं देखना चाहिये |३६ | यदि ये लोग श्राद्ध के अन्न को देख लेते है तो वह अन्न भी हव्य के लिये उपर्युक्त नहीं है, इनके द्वारा स्पर्श किये गये श्राद्धादि संस्कार अपवित्र हो जाते हैं | जमे हुये घृत को प्रथमतः वर्जित रखना चाहिये । श्राद्धकर्म में मिट्टी से मिले हुये जल से सिंचन करना चाहिये ४०-४१। पीले सरसों से अथवा काले तिल से अवकीरण (विकीरण, पृथ्वी पर ।