पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/७३६

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नवसप्ततितमोऽध्यायः अथ नवसप्ततितमोऽध्यायः श्राद्ध कल्पः ऋषय ऊचु: अहो धीमंस्त्वया सूत श्राद्धकल्पस्तु कीर्तितः । श्रुतो नः श्राद्धकल्पो वै ऋऋषिभिः परिकीर्तितः अतीव विस्तरो वस्य विशेषेण प्रकीर्तितः । वद शेषं महाप्राज्ञ ॠषेस्तस्य यथामतम् सूत उवाच कर्तयिष्यामि ते विप्रा ॠषेस्तस्य मतं तु यत् । अद्धं प्रति महाभागास्तन्मे शुगृत विस्तरात् उक्तं श्राद्धं मया पूर्व विविश्व श्राद्धकर्मणि | परिशिष्टं प्रवक्ष्यामि ब्रह्मणानां यथाक्रमम् न मीमांस्याः सदा विप्राः (* पवित्रं ह्येतदुत्तमम् । दैवे पिये च सततं श्रूयते वै परीक्षणम् ७१५ ॥१ ॥२ 113 ॥४ ॥५ अध्याय ७६ श्राद्धकल्प ऋषियों ने कहा: -- परम बुद्धिमान् सूत जी ! ऋषियों द्वारा कहे गये श्राद्धकल्प का वर्णन विशेषतया अति विस्तारपूर्वक तुम कर चुके और हम लोग उसे सुन भी चुके । हे महामति ! अव श्राद्ध के विषय में जो कुछ उन ऋषि की शेष वातें हों, उन्हें बतलाइये |१-२॥ सूतजी ने कहा- हे विप्रगण ! उन ऋषि का श्राद्ध के विषय में जो मत है, उसे बतला रहा हूँ | हे महाभाग्यशालियो ! विस्तारपूर्वक उसे सुनिये |३| पूर्व प्रसंग में श्राद्धकर्म में की जाने वाली श्राद्धीय विधियों का वर्णन में कर चुका हूँ, अब ब्राह्मणादि के बारे में जो शेष नियमादि हैं, उनका वर्णन कर रहा हूँ | ब्राह्मण लोग मीमांसा के परे होते हैं, अर्थात् ब्राह्मणों के विषय में मीमांसा नहीं करनी चाहिये | वे परमपवित्र तथा सभी जातियों में उत्तम है। किन्तु ऐसा होने पर भी देवताओं और पितरों के कार्य मे ब्राह्मणों की परीक्षा सर्वदा होती सुनी गई है |४-५॥ जिसमें लोग दोष देखते है, अथवा सज्जन

  • धनुश्विह्रान्तर्गतग्रन्थः ख. पुस्तके नास्ति | |