पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/७३९

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वायुपुराणम् ॥२६ ॥२७ ॥२८ ॥२ सग्नादोन्मृतहारांश्च स्पृष्ट्वाऽशौचं विधीयते । स्नात्वा सचैलो मृद्भिस्तु द्वादशभिस्तु शुध्यति ॥२५ एतदेव भवेच्छौघं मैथुने वमने तथा । मृदा प्रक्षाल्य हस्तौ तु कुर्याच्छौचविधि नरः प्रक्षाल्य चाद्भिर्हस्तौ च स्नात्वा चैव मृदा पुनः । मृदं गुह्ये ततो द्विस्तु पुनरेव मृदं बुधः एवं शौचविधिर्दुष्टः सर्ववर्णेषु नित्यदा | परिदद्यान्मृदस्तित्रो हस्तपादावसेचनम् आरण्यं शौचमेतत्तु ग्राम्यं वक्ष्याभ्यतः परम् । मृदस्तिस्रः पादयोस्तु हस्तयोस्तित्र एव घ मृदः पञ्चदशामेध्ये हस्तादीनां विभागशः | अनिणिक्ते मृदं दद्यान्मृदन्ते त्वद्भिव तु कण्ठं शिरो वा प्रावृत्य रथ्यापादगतस्तु वा । अकृत्वा पादयोः शौचमाचान्तोऽप्यशुचिर्भवेत् प्रक्षाल्य पात्रं निक्षिप्य आचम्याभ्युक्षणं पुनः | द्रव्यस्यान्यस्य तु तथा कुर्यादभ्युक्षणं पुनः पुष्पादीनां तृणानां च प्रोक्षणं हचिषां तथा । पराहतानां द्रव्याणां निषायाभ्युक्षणं तथा नामोक्षितं हरेत्किचिच्छ्राद्धे दैवे तथा पुनः । उत्तरेणाऽऽहरेद्वेद्यां दक्षिणेन विसर्जयेत् 1 ॥३० ॥३१ ७१८ ॥३४ होती है । ऋतुमती, सूतिका, श्वान, चाण्डाल नंगे एवं मुर्दों के ढोनेवालों को स्पर्श कर शुद्धि करनी चाहिये | भृत्तिका से वस्त्रों समेत बारह बार स्नान करने से शुद्धि होती है |२२-२५॥ यही विधि मैथुन, और वमन के उपरान्त भी विहित है। मिट्टी से दोनों हाथों को धोकर मनुष्य को शौच करना चाहिये |२६| बुद्धिमान् पुरुष जल से दोनों हाथों को धोकर पुनः मिट्टी से स्नान करे, फिर दो बार गुल (गोपनीय) स्थान पर मृत्तिका लगाकर फिर एक बार मृत्तिका लगावे । सभी जातियों के लिये शोच के वही नियम सर्वदा देखे गये है | तोन वार मृत्तिका लेकर हाथ और पैर को धोना चाहिये । यही नियम वानप्रस्थियों के लिये है, अब इसके उपरान्त ग्राम्य (गृहस्थाश्रमी) लोगो के लिये जो शौच के नियम है, उन्हें वतला रहा हूँ | तीन बार दोनो पैरो में तथा तीन बार दोनो हाथों मे मृत्तिका लगानी चाहिये | २७-२९ | हाथ आदि अपवित्र स्थानों में विभाग करके पन्द्रह बार मृत्तिका लगानी चाहिये । अपवित्र स्थानों में मिट्टी लगाकर शुद्धि करने के उपरान्त जल से सफाई करनी चाहिये |३०| कण्ठ और शिर को आवृत कर सड़क पर पैदल चलने पर भी पैरों को पवित्र करना चाहिये । विना पैर धोकर जल का आचमन करनेवाला भी अशुचि रहता है |३१| हाथ पैर आदि धोकर जल पात्र रखकर पुन: आचमन करे फिर श्राद्ध सम्बन्धी या यज्ञ सम्बन्धी वस्तुओं के ऊपर जल का छीटा दे |३२| पुष्प, तृण एवं हवनीय द्रव्यादि जितनी भी वस्तुएँ हो, उन सब का सिंचन करे | इसी प्रकार दूसरों द्वारा लाये गये द्रव्यो को रखकर उनके ऊपर भी जल छिड़कना चाहिये । श्राद्ध कर्म में तथा देवकार्य में विना जल से सेवन किये कोई भी वस्तु काम न लानी चाहिये । वेदो मे. उत्तर दिशा की ओर से वस्तुएँ लानी चाहिये और दक्षिण दिशा से विसर्जन करना चाहिये |३३-३४