पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/७४५

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७२४ वायुपुराणम् यश्च शूकरवद्भुङ्क्ते यश्च पाणितले द्विजः । न तदश्नन्ति पितरो यश्च वामं समश्नुते स्त्रीशूद्रायानुपेताय श्रद्धोच्छिष्टं न दापयेत् । यो दद्याद्रागमोहात्तु न तद्गच्छेत्पितम्सदा तस्मान्न देयमुच्छिष्टमन्नाद्यं श्राद्धकर्मणि | अन्यत्र दधिसपियि शिष्ये पुत्राय नान्यथा अनुच्छिष्टं तु दातव्यं अन्नाद्यं वै विशेषतः । पुष्पमूलफलैर्वाऽपि तुष्टि गच्छन्ति चान्नतः यावन्त्यन्नानि पूतानि यावदुष्णं न मुञ्चति । तावदश्नन्ति पितरो यावदश्नन्ति वाग्यताः दानं प्रतिग्रहो होमो भोजनं वलिरेव च । साङ्गुष्ठेन तथा कार्य नासुरेभ्यो यथा भवेत् एतान्येव च सर्वाणि दानादीनि विशेषतः । अन्तर्जान्व विशेषेण तद्वदाचमनं भवेत् मुण्डाञ्जटिलकाषायाश्राद्धकालेऽपि वर्जयेत् । शिखिभ्यो वा त्रिदण्डिभ्यः श्राद्धं यत्नात्प्रदापयेत् ॥८ ये तु व्रते स्थिता नित्यं ज्ञानिनो ध्यानिनस्तथा । देवभक्ता महात्मानः पुनीयुर्दर्शनादपि सर्व योगेश्वरैर्व्याप्तं त्रैलोक्यं वै निरन्तरम् । तस्मात्पश्यन्ति ते सर्व यत्किचिज्जगतीगतम् ॥८५ ॥ ॥६१ ॥८२ ॥८३ ॥८४ ॥८५ ॥८६ ॥८७ खाता है, अथवा बाएँ हाथ से खाता है, उसका दिया हुआ पितरगण नहीं खाते । श्राद्ध से बची हुई भोजनादि वस्तुएँ स्त्री को तथा ऐसे शूद्र को, जो अनुचर न हो, नही देनी चाहिये । जो अज्ञान वश इन्हें दे देता है, उसका दिया हुआ श्राद्ध पितरों को नही प्राप्त होता । इसलिये श्राद्धकर्म मे जूठे बचे हुए अन्नादि पदार्थों को किमी को नही देना चाहिये । दूसरे कार्यों में दही और घृत को मिश्रित कर शिष्य और पुत्र को देना चाहिये मन्यथा नही १८२-८४ | विशेषतया बिना जूठे हुए अन्नादि को देना चाहिये । पुष्प, मूल और फलों से जिसप्रकार पितर गण तृप्त होते है उसी प्रकार अन्न से भी तृप्त होते है। जब तक अन्न उष्ण रहता है, तभी तक वह पवित्र रहता है अर्थात् ठंढा हो जाने पर अपवित्र हो जाता है। ब्राह्मण लोग जब तक चुपचाप इन्द्रियो को वश में रखकर भोजन करते है तभी तक पितर गण भोजन करते हैं, अर्थात् ब्राह्मणों को चुपचाप सावधानी पूर्वक इन्द्रियों को वश में रखकर भोजन करना चाहिये १८५-८६ दान, दान का अंगीकार, हवन, भोजन, वलि - इन सबको अँगूठे के साथ सम्पन्न करना चाहिये, जिससे असुरों के लिये वह न हो जाय । श्राद्ध कर्म मे विशेष- तया ये उपयुक्त दानादि करने चाहिये । साधारणतया घुटनों के भीतर हाथ करके आचमन करना चाहिए 1८७-८८। श्राद्ध काल मे भी मुण्डित शिरवाले, जटा रखनेवाले कापायवस्त्रधारी को वर्जित रखना चाहिये । यत्नपूर्वक शिखारी और त्रिदण्डी ( मन, वचन और शरीर के दंड को धारण करने वाला, एक प्रकार का संन्यासी) को श्राद्ध प्रदान करना चाहिये । जो ब्राह्मण नित्य व्रतपरायण रहते हैं, ज्ञानार्जन मे प्रवृत्त रहकर योगाभ्यास में निरत रहते है, देवता में भक्ति रखते हैं, आत्मा से महान् होते है - वे दर्शन मात्र से पवित्र करते हैं 1५६-६०। ह समस्त चराचर जगत् योगपरायण महात्माओ से निरन्तर व्याप्त रहता है, इसीलिये वे इस जगतीतल में जो,