पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/७४६

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अशीतितमोऽध्यायः व्यक्ताव्यक्तं वशीकृत्य सर्वस्यापि च यत्परम् | सदसच्चेति यैदृ ष्टं सदसच्च महात्मनाम् सर्वज्ञानानि दृष्टानि मोक्षादीनि महात्मनाम् । तस्मात्तेषु सदा सक्तः प्राप्नोत्यनुपमं शुभम् ऋो हि यो वेद स वेद वेदान्यजूंषि यो वेद स वेद यज्ञम् । सामानि यो वेद स वेद ब्रह्म यो मानसं वेद स वेद सर्वम् इति श्रीमहापुराणे वायुप्रोक्ते श्राद्धकल्पे ब्रह्मणपरीक्षणं नाम नवसप्ततितमोऽध्यायः ॥७६।। शीतितमोऽध्यायः श्राद्धकल्पे दानफलम् बृहस्पतिरुवाच अतः परं प्रवक्ष्यामि दानानि च फलानि च । तारणं सर्वभूतानां स्वर्गमागं सुखावहम् ७२५ ||६२ ॥६३ ॥६४ ॥१ कुछ होता है, उसे देखते है । व्यक्ति, अव्यक्त, सबसे परे जो कुछ पदार्थ है उन सब को वे वश में रखते हैं । सत् असत् जो कुछ भी भाव या पदार्थ है उनके देखे हुए है, महात्मा पुरुषों के लिये सत् असत् सभी पदार्थ वशीकृत हैं |६१-६२ । ओ के लिए निश्चित मोक्षादि, एवं समस्त ज्ञान उनके अधिकृत रहते है । इसलिये उन योगपरायण महापुरुषों में आसक्ति (प्रेम) रखनेवाला परम कल्याण का भाजन होता । जो ऋग्वेद को जानता है. वह सभी वेदों को जानता है, जो यजुर्वेद को जानता वह समस्त यज्ञों का जाननेवाला है, जो सामवेद जानता है, वह पूर्णब्रह्मज्ञानी है, जो मानस (?) जानता है वह सब कुछ जानता है ।६३-६४। श्री वायुमहापुराण में श्राद्धकल्प में ब्राह्मण परीक्षा नामक उन्यासीर्वा अध्याय समाप्त ॥७६॥ अध्याय ८० श्राद्ध में दान के फल बृहस्पति ने कहा- अब इसके उपरान्त पुनः दान और उसके फलों को बतला रहा हूँ | सभी जोवों के उद्धार करनेवाले, स्वर्गमार्ग में सुख देनेवाले, लोक में सर्वश्रेष्ठ, स्वर्गप्रदान करनेवाले, अपने को विशेष