पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/७५३

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७३२ वायुपुराणम् दानानि परमो धर्मः सद्भिः सत्कृत्य पूजितः | त्रैलोक्यस्याऽऽधिपत्यं हि दानादेव व्यवस्थितम् ॥६१ राजा तु लभते राज्यमधनश्चोत्तमं धनम् । क्षोणापुर्लभते चाऽऽयुः पितृभक्तः सदा नरः ॥ यान्कामान्मनसाऽर्थेत तांस्तस्य पितरो ददुः इति श्रीमहापुराणे वायुप्रोक्ते श्राद्धकल्पे दानफलं नामाशीतितमोऽध्यायः ॥ ५० ॥ काशीतितमोऽध्यायः श्राद्धकहने तिधिबिशेषे श्रादफलम् बृहस्पतिरुवाच अत ऊर्ध्वं प्रवक्ष्यामि श्राद्धकर्मणि पूजितम् । काम्यनैमित्तिकाजस्रं श्राद्धकर्मणि नित्यशः पुत्रदा धनमूलाः स्युरष्टकास्तिस्त्र एव च । पूर्वपक्षो चरिष्ठो हि पूर्वा वित्री उदाहृता ॥६२ अध्याय ८१ विशेष तिथियों में श्राद्ध के किये जाने का फल ॥१ ॥२ ने इनका सर्वदा सत्कार और पूजन किया है। समस्त त्रैलोक्य का आधिपत्य दान से हो व्यवस्थित है। राजा लोग राज्य प्राप्त करते हैं, निर्धन लोग उत्तम धन प्राप्त करते हैं, क्षीणायु दीर्घायु प्राप्त करते है, पितरों में भक्ति रखनेवाला मनुष्य मन से भी जिन अभिलाषाओं का चिन्तन करता है, उनको पितरगण पूर्ण करते हैं ।६१-६२। श्री वायुमहापुराण में श्राद्धकल्प में दीनफल नामक अस्सीवां अध्याय समाप्त |॥५०॥ बृहस्पति ने कहा- अब इसके बाद मै नित्य, नैमित्तिक और काम्य श्राद्धो का विवरण बतला रहा हूँ, और यह भी बतला रहा हूँ कि श्राद्धकर्म पूजनादि किस प्रकार सम्पन्न होते हैं | १ | तोनों अष्टकाएँ पुत्र को देनेवाली और धन सम्पत्ति आादि की कारणीभूत हैं । इस श्राद्धकर्म में पूर्वपक्ष अर्थात्