पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/७५४

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एकाशीतितमोऽध्यायः प्राजापत्या द्वितीया स्यात्तृतीया वैश्वदैविकी | आद्या पूपैः सदा कार्या मांसैरन्या भवेत्सदा ( * शाकैरन्या तृतीया स्यादेवं द्रव्यगवो विधिः | अन्वष्टका पितॄणां वै नित्यमेव विधीयते यद्यन्या च चतुर्थी स्यात्तां च कुर्याद्वशेषतः । नासु श्राद्धं बुधः कुर्यात्सर्वस्वेनापि नित्यशः परत्रेह च सर्वेषु नित्यमेव सुखोभवेत् । पूजकानां सदोत्कर्षो नास्तिकानामधोगतिः पितरः पर्वकालेषु तिथिकालेषु देवताः । सर्वे पुरुषमायामित निपानमिव धेनवः मा स्म ते प्रतिगच्छेपुरष्टका: सूरपूजिताः । मोघस्तस्य भवेल्लोको लब्धं चास्य विनश्यति देवांस्तु दायिनो यान्ति तिर्यग्गच्छन्त्यदायिनः | प्रज्ञां पुष्टि स्मृति मेधां पुत्रानैश्वर्यमेव च कुर्वाण: पौर्णमास्यां च पूर्व पूर्ण समश्नुते । प्रतिपद्धनलाभाय लब्धं चास्य न नश्यति द्वितीयायां तु यः कुर्याद्विपदाधिपतिर्भवेत् ।) वरार्थिनां तृतीया तु शत्रुघ्नी पापनाशिनी ७३३ ॥३ ॥४ ॥५ ॥६ 111.9 118 ॥१० ॥११ कृष्णपक्ष श्रेष्ठ माना गया है। तीनों अष्टकाओं में प्रथम चित्रो कही गई है। दूसरी प्राजापत्य और तीसरी वैश्वदेवी है | इन तीनों में पहिली को पूओं द्वारा, दूसरी को मांसों द्वारा तथा तीसरी को शाकों द्वारा करना चाहिये । यह इन तीनों अष्टकाओं के लिये पदार्थों का नियम है । पितरों के लिये अन्वष्टका श्राद्ध सर्वत्र करना चाहिये ।२-४ | यदि कोई अन्य चौथी अष्टका मिले तो उसे भी विधिपूर्वक सम्पन्न करे । बुद्धिमान् पुरुष को इन सव अष्टकाओं में सर्वस्व व्यय करके भी श्राद्ध करना चाहिये । ऐसा करनेवाला प्राणी इह लोक तथा परलोक—दोनों में सर्वदा आनन्द का अनुभव करता है। पूजा आदि करनेवालों की सदा उन्नति होती है और जो नास्तिक विचारवाले होते है, उनकी सर्वदा अधोगति होती है ।५-६ पितरगण पर्व के अवसरों पर तथा देवगण विशेष - विशेष तिथियों पर श्राद्धादि एवं पूजा आदि करनेवाले पुरुष के पास इस प्रकार उपस्थित होते है जैसे गौएँ जलाशय के समीप पानी पीने के लिये आती है |७| वे पितरगण देवताओं द्वारा पूजित इन अष्टकाओं के समीप नहीं जाते। जो व्यक्ति इन अष्टकाओं मे पितरों की पूजा आदि नहीं करते, उनका यह लोक (जन्म) व्यर्थ हो जाता है और जो कुछ प्राप्त हुआ रहता है वह नष्ट हो जाता है 151 जो इन अवसरों पर श्राद्धादि का दान करते है वे देवताओं के समीप अर्थात् स्वर्ग लोक को जाते हैं और जो नहीं देते वे तिर्थक् (अधम, पक्षी आदि) योनियों में जाते हैं। उसकी बुद्धि, पुष्टि, स्मरणशक्ति धारणाशक्ति, पुत्र पौत्रादि, एवं ऐश्वर्य की वृद्धि होती है, जो पूर्णमासी के अवसर पर श्राद्धादि करता है, इस प्रकार वह पूर्ण पर्व का फल भोगता है। इसी प्रकार प्रतिपदा धन सम्पत्ति के लाभ के लिये होती है, एवं करनेवाले की प्राप्त वस्तु नष्ट नही होती |६-१०। द्वितीयातिथि को जो पितरो के उद्देश से श्राद्धादि करता है, वह दो पादवालों ( मनुष्यों का राजा होता है। उत्तम अर्थ की प्राप्ति के अभिलापी व्यक्ति के लिये श्राद्धादि में तृतीया विहित है, यह तृतीया

  • धनुश्चिह्नान्तर्गतग्रन्थ: ग. पुस्तके नास्ति |

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