पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/७७२

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' त्र्यशीतितमोऽध्याया ॥११४ ॥११५ ॥११६ ॥११७ ।।११६ देवकार्यादपि सूनो पितृकार्यं विशिष्यते । देवतानां हि पितरः पूर्वमाप्यायनं स्वयम् न हि योगगतिः सूक्ष्मा पितॄणां च परा गतिः । तपसा विप्रकृष्टेन दृश्यते मांसचक्षुषा सर्वेषां राजतं पात्रमथवा रजतान्वितम् | पावनं ह्यत्तमं प्रोक्तं देवानां पितृभिः सह येषां दास्यन्ति पिण्डांस्त्रीन्बान्धवा नामगोत्रतः | भूमौ कुशोत्तरायां च अपसव्यविधानतः सर्वत्र वर्तमानांस्ते पिण्डाः प्रोणन्ति वै पितॄन् । यदाहारो भवेज्जन्तु राहारः सोऽस्य जायते ॥११८ यथा गोष्ठे प्रनष्टां वै वत्सो विन्दति मातरम् । तथा तं नयते मन्त्रो जन्तुर्यत्रावतिष्ठते नाम गोत्रं च मन्त्रश्च दत्तमन्नं नयन्ति तम् । अपि योनिशतं प्राप्तांस्तृप्तिस्ताननुगच्छति एवमेषा स्थिता संस्था ब्रह्मणा परमेष्ठिना | पितृणामादिसर्गस्तु लोकानामक्षयार्थिनास् इत्येते पित्तरी देवा देवाश्च पितरः पुनः । दौहित्रां यजमानाच प्रोक्ताश्चैव मयाऽनघाः लोका दुहितरश्चैव दौहित्राश्च सुतास्तथा । दादानि सह शौचेन तीर्थानि च फलानि च अक्षयत्वं द्विजाश्चैव यायावरविधिस्तथा । प्रोक्तं सर्व यथान्यायं यथा ब्रह्माऽनवीत्पुरा ।।१२० ७५१ ॥१२१ ॥१२२ ॥१२३ ॥१२४ देवकार्य की अपेक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण है, देवताओं से पूर्व पितरों को सन्तुष्ट करने की बात कही जाती है । पितरों की परम सूक्ष्म योगगति उत्कृष्ट तपस्या के प्रभाव से वचित मांस के नेत्रों से नहीं दिखाई पड़ती अर्थात् उसे देखने के लिये परम कठोर तप की आवश्यकता है। समस्त देवताओं और पितरों के लिए चाँदी का पात्र विहित है, अभाव में चांदी से समन्वित ( मढ़ा हुआ ) होना चाहिये । ऐसे पात्र इनके कार्यों में परम पुनीत कहे जाते हैं। जिनके परिवारवर्ग के लोग नाम और गोत्र का उच्चारण कर विधिपूर्वक अपसव्य होकर कुश बिछी भूमि पर तोन पिण्डदान करते है, उनके वे तीनों पिण्ड सर्वत्र वर्तमान रहनेवाले पितरों को प्रसन्न करते है | जन्तु ( मनुष्य ) जो आहार करता है, वही आहार उसके पितर का होना चाहिये ।११४-११ : | जिस प्रकार चारागाह मे सैकड़ों गौओंों में छिपी हुई अपनी माता को बछड़ा पा जाता है, उसी प्रकार श्राद्धकर्म में दिये गये पदार्थो को मंत्र यहाँ पर पहुँचा देता है, जहाँ वह जीव अवस्थित रहता है। पितरों के नाम, गोत्र और मंत्र श्राद्ध में दिये गये अन्न को उसके पास ले जाते है, चाहे वे सैकड़ों योनियों मे क्यों न गये हों पर श्राद्ध के अन्नादि से उसकी तृप्ति होती है | परमेष्ठी पितामह ब्रह्मा ने इसी प्रकार की श्राद्ध की मर्यादा स्थिर की है, अक्षय लाभ को प्राप्ति के अभिलापी लोगों के लिये पितरों की यह आदि सृष्टि हुई |११८- १२१। ये पितरगण ही देवस्वरूप है और देवगण हो पितर स्वरूप है । निष्पाप ऋपिगण, दौहित्र ( नाती) गण उन पितरों के यजमान हैं। समस्त लोक उनकी पुत्री, नाती और पुत्र के रूप में है। श्राद्धकर्म में पवित्रता, दान, तीर्थ, फल, अक्षय फल प्राप्ति, द्विज गण, पर्यटन विधि आदि सभी आवश्यक विषयों की चर्चा पूर्वकाल में ब्रह्माजी ने जिस प्रकार की थी, उन सब विधि को मै आप लोंगों से बतला चुका |१२२-१२४|