पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/८०३

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वायुपुराणम् बभूवुर्धामिकाः सर्वे यज्वानो भूरिदक्षिणाः | कुवलाश्वं महावीर्यं शुरमुत्तमधार्मिकम् बृहदश्वोऽभ्यषिञ्चत्तं तस्मित्राष्ट्रे नराधिपः । पुत्रसंक्रामितश्रीस्तु वनं राजा विवेश ह बृहदश्वं महाराज शूरमुत्तमधार्मिकम् । प्रयातं तमुत्तङ्कस्तु ब्रह्मषिः प्रत्यवारयत् उत्तङ्क उवाच भवता रक्षणं कार्यं तत्तावत्कर्तुमर्हति । निरुद्विग्नस्तपः कर्तुं न हि शक्नोमि पार्थिव ममाऽऽश्रमसमीपेषु समेषु मरुधन्वसु । समुद्रो वालुकापूर्णस्तत्र तत्र तिष्ठति भूपते देवतानामवध्यस्तु महाकायो महाबलः । अन्तर्भूमिगतस्तत्र वालुकातहतो महान् स मनोस्तनयः क्रूरो धुन्धुर्नाम सुदारुणः | शतं लोकविनाशाय तप आस्थाय दारुणम् संवत्सरस्य पर्यन्ते स निश्वासं प्रमुञ्चति । यदा यदा मही तत्र चलति स्म सकानना तस्य निश्वासवातेन रज उद्धूयते महत् । आदित्यपथमावृत्य सप्ताहं भूमिकम्पनम् सविस्फुङ्गिं सज्वालं सधूममतिदारुणम् । तेन राजन्न शक्नोमि तस्मिन्स्थातुं स्व आश्रमे ७८२ ॥३१ ॥३२ ॥३४ ॥३५ ॥३६ ॥३७ ॥३८ ॥३६ ॥४० सभी विद्याओं में पारङ्गत, परम वलवान्, दुइँमनोय, प्रचुरदक्षिणा देने वाले, यज्ञकर्ता एवं धार्मिक विचारों वाले थे | नराधिप वृहदश्व ने सवों में परम धार्मिक, शुरवीर एवं साहसी कुत्रलाश्व को अपने राज्य के उत्तराधिकारी पद पर अभिषिक्त किया और इस प्रकार योग्य पुत्र को राज्य भी समर्पित कर स्वयं वन को चले गये । ब्रह्मर्षि उत्तम ने परम धार्मिक महाराज वृहदश्व को वन में जाते हुए निवारित किया |३०-३३॥ उत्तङ्क ने कहा - हे राजन् ! आपको हम लोगों को रक्षा करनी चाहिये, अतः हमारी रक्षा कीजिये, उद्विग्न चित्र होने के कारण तपस्या करने में हम असमर्थ हो रहे हैं । भूपते ! हमारे आश्रम के समीप ही इस समान मरुभूमि में बालू का समुद्र है । उसी में भूमि के अन्दर निवास बनाकर परम विकराल शरीरवाला, महाबलवान् धुन्धु रहता है, देवगण भी उस धुन्धु का वध नही कर सकते, वह बालू में रहता है | वह धुन्धु मनु का पुत्र है, फिर भी परम क्रूर और दारुण चित्तवृत्तिवाला है । लोकों का विनाश करने के लिए वह सौ वर्षो से दारुण तप कर रहा है |३४-३७। एक वर्ष बीतने पर वह एक श्वास छोड़ता है. जिस समय वह श्वास छोड़ता है, उस समय जंगलों समेत सारी पृथ्वी हिलने लगती है। उसकी निःश्वास वायु से धूल का विकराल बवंडर उठ पड़ता है, जिससे सूर्य का मार्ग ही घिर जाता है, सात दिनो तक भूमि काँपती रहती है। चारों ओर अग्नि की चिनगारियाँ उठ पड़ती हैं, विकराल ज्वालाएँ निकलने लगती है, अतिदारुण घूएँ में सारी दिशाएँ आकीर्णं हो जाती हैं, हे राजन् ! इन सब उत्पातों से हम अपने इस आश्रम में भी निवास नही कर पाते ।३८-४० हे महाबाहु राजन् ! लोकरक्षा के ध्यान से उसे उत्पात से निवारित कीजिये |