पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/८१०

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अष्टाशीतितमोऽध्यायः ७८६ ॥१०३ स तु द्वादश वर्षाणि दीक्षां तामुद्वहन्बली | अविद्यमाने मांसे तु वसिष्ठस्य महात्मनः सर्वकामदुधां धेनुं स ददर्श नृपात्मजः । तां वै क्रोधाच्च मोहाच्च श्रमाच्चैव क्षुधान्वितः ॥१०४ दस्युधर्मं गतो दृष्ट्वा जघान बलिनां वरः । स तु मांसं स्वयं चैव विश्वामित्रस्य चाऽऽत्मजान् ॥१०५ भोजयामास तच्छ्रुत्वा वसिष्ठरतं तदाऽत्यजत् । प्रोवाच चैव भगवान्वसिष्ठस्तं नृपात्मजम् ॥१०६ पातये क्रूर हे क्रूर तव शङ्कमयोमयम् | यदि ते त्रीणि शकूनि न स्युहि पुरुषाधम पितुश्चापरितोषेण गुरोर्दोग्ध्रीवधेन च । अप्रोक्षितोपयोगाच्च त्रिविधस्ते व्यतिक्रमः एवं स त्रीणि शङ्कनि दृष्ट्वा तस्य महातपाः | त्रिशङ्कुरिति होवाच त्रिशङ्कुस्तेन स स्मृतः ॥१०६ विश्वामित्रस्तु दाराणामागतो भरणे कृते । ततस्तस्मै वरं प्रादात्तदा प्रोतस्त्रिशङ्कवे छन्द्यमानो वरेणाथ गुरुं वव्रे नृपात्मजः | अनावृष्टिभये तस्मिन्गते द्वादशवाषिके ॥१०७ ॥१०८ ॥११० ॥१११ अभिषिच्य तदा राज्ये याजयामास तं मुनिः । मिषतां दैवतानां च वशिष्ठस्य च कौशिकः ॥११२ राज्य पद पर अभिषिक्त कर रहा हूँ ।' उधर बलवान राजकुमार सत्यव्रत पिता की आज्ञा से बारह बर्ष का व्रत लेकर जिस समय वन में निवास कर रहा था, उस समय एक दिन मांस का अभाव हो गया, तब उसने महात्मा वसिष्ठ की सभी मनोरथों को पूर्ण करनेवाली कामधेनु को देखा |१०२ १०३३। क्रोध, मोह, श्रुधा एवं अत्यन्त थके माँदे होने के कारण, उसने विचार किया कि मै इस चांण्डालों के समीप निवास करता हूँ, उन्हीं के समान आंचरण भी मुझे करना चाहिये, क्यों न इसी को मारकर क्षुधा शान्त करूँ ।' यह सोचकर उसने वसिष्ठ को उस कामधेनु को मार डाला । महाबलवान् राजकुमार सत्यव्रत ने इस प्रकार उस कामधेनु के मांस को स्वयं खाया और महर्षि के पुत्रादिकों को भी खिलाया। इस दारुण वृत्तान्त को सुनकर परमतेजस्वी महर्षि वसिष्ठ ने कुमार सत्यव्रत को छोड़ दिया और उसने कहा, हे क्रूर कर्मा ! अब हम तुम्हें गिरा रहे हैं, हे पुरुषाधम ! यदि तुम्हारे ये तीन शंकु ( महापाप रूप कील) न होते तो तुम्हारे ऊपर लोह का शंकु गिरता । पिता के असन्तुष्ट करने के कारण, गुरु की कामधेनु की हत्या करने के कारण, विना संस्कार आदि किये माँस भक्षण करने के कारण तुमने तीन धार्मिक अपराध किये हैं । १०४-१०८ महातपस्वी महर्षि वसिष्ठ ने सत्यव्रत के इन तीन शंकु सदृश महान् अपराधों का विचार कर उसका त्रिशंकु नाम रख दिया, इसी कारण उसका त्रिशंकु नाम भी पड़ गया । इधर राजपि विश्वामित्र जब तपस्या से निवृत्त होकर आश्रम को लौटे और स्त्री पुत्रादिकों के सत्यव्रत द्वारा भरण पोषण किये जाने वा वृत्तान्त सुना तो परम प्रसन्न होकर त्रिशंकु को वरदान दिया। विश्वामित्र के वर दान देते समय राजकुमार सत्यव्रत ने सारा शाप वृत्तान्त निवेदन किया | कौशिक ने उस बारह वर्ष के अनावृष्टि जनित दुष्काल के बीत जाने पर सत्यव्रत को राज्यपद पर अभिषिक्त किया, और उसके द्वारा यज्ञादि शुभ कार्य सम्पन्न कराया, सभी देवगण तथा महर्षि वसिष्ठ देखते ही रह