पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/८४७

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८२६ वायुपुराणम् विषण्णवदना देवी महादेवमभाषत । नेह वत्स्याम्यहं देव नय मां स्वं निवेशनम् तथोक्तस्तु महादेवः सर्वाल्लाकानवेक्ष्य ह । वासार्थं रोचयामास पृथिव्यां तु द्विजोत्तमाः ॥ वाराणसीं महातेजाः सिद्धक्षेत्रं महेश्वरः दिवोदासेन तां ज्ञात्वा निविष्टां नगरीं भवः । पार्श्वस्थं स समाहूय गणेशं क्षेमकं *ब्रवीत् गणेश्वरपुरीं गत्वा शून्यां वाराणसीं कुरु | मृदुना चाभ्युपायेन अतिवीर्यः स पार्थिवः ततो गत्वा निकुम्भस्तु पुरीं वाराणसीं पुरा | स्वप्ने संदर्शयामास मङ्कनं नाम नापितम् श्रेयस्तेऽहं करिष्यामि स्थानं मे रोचयानघ । मद्रूपां प्रतिमां कृत्वा नगर्यन्ते निवेशय तथा स्वप्ने यथा दृष्टं सर्वं कारितवाद्विजाः | नगरीद्वार्यनुज्ञाप्य राजानं तु यथाविधि पूजा तु महती चैव नित्यमेव प्रयुज्यते । गन्धैर्धूपैश्च माल्यैश्व प्रेक्षणीयैस्तथैव च अन्नप्रदानयुक्तैश्च अत्यद्भुतमिवाभवत् । एवं संपूज्यते तत्र नित्यमेव गणेश्वरः ॥३४ ॥३५ ॥३६ ॥३७ ॥३८ ॥३ ॥४० ॥४१ ॥४२ खश पार्वती सहन न कर सकीं । वरदान देने वाली पावती मन्द हास्य करती हुई महादेव के समीप आई और वहाँ खिन्न मुख होकर महादेव से बोली- देव ! अब में यहाँ पर निवास नही करूंगी, मुझे अपने यहाँ ले चलिये । देवी के ऐसा कहने पर महादेव ने तोनो लोकों मे अपने योग्य स्थान देखा | द्विजवयंवृन्द ! समस्त भूमंडल भर में महान् तेजस्वी महेश्वर ने अपने निवास योग्य स्थान सिद्ध क्षेत्र वाराणसी को ही पसन्द किया |३२-३५॥ भव ने उक्त वाराणसी नगरी को उस समय राजा दिवोदास के अधीन जानकर अपने समीप रहनेवाले गणेश्वर क्षेमक को बुलाकर कहा | गणेश्वर ! तुम वाराणसी पुरी को जाओ, और उसे खाली कराओ । देखना, मृदुल उपायो द्वारा उसे खाली कराना, क्योंकि वहां का राजा दिवोदास महान् पराक्रमी है |३६-१७ इस प्रकार शिव की आज्ञा से प्राचीन काल में निकुम्भ वाराणसी पुरी को प्रस्थित हुआ, और वहाँ जाकर उसने स्वयं को मकन नामक नापित को स्वप्न में दिखाया, और उससे कहा, निष्पाप ! मैं तुम्हारा कल्याण करूँगा, मेरे लिए एक स्थान तू बना | इस नगरी के अन्तिम छोर पर मेरी प्रतिमा बनाकर - स्थापित कर दे । द्विजवृन्द ! मङ्कन मे स्वप्न मे देखी हुई सभी बातों को पूर्ण किया, राजा से आज्ञा प्राप्त कर उसने नगरी के प्रवेश द्वार पर विधिपूर्वक निकुम्भ को प्रतिमा स्थापित की |३५-४०१ उस स्थान पर निकुम्भ की मूर्ति को नित्यप्रति बड़ी पूजा होने लगी। गन्ध, धूप, पुष्प, माला, अन्नादि वस्तुओं के देने से एक अद्भुत दृश्य उपस्थित हो गया। इस प्रकार गणेश्वर की नित्यप्रति पूजा होती थी । गणेश्वर ने भी पूजा मैं

  • अत्राडभाव आषः ।