पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/८४८

एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

द्विनवतितमोऽध्यायः ततो वरसहस्राणि नगराणां प्रयच्छति । पुत्रान्हिरण्यमायूंषि सर्वकामांस्तथैव च राज्ञस्तु महिषी श्रेष्ठा सुयशा नाम विश्रुता । पुत्रार्थमागता साध्वी राज्ञा देवी प्रचोदिता पूजां तु विपुलां कृत्वा देवी पुत्रानयाचत । पुनः पुनरथाऽऽगम्य बहुशः पुत्रकारणात् न प्रयच्छति पुत्रांस्तु निकुम्भः कारणेन तु । राजा यदि तु क्रुध्येत ततः किंचित्प्रवर्तते अथ दीर्घेण कालेन क्रोधो राजानमाविशत् । भूतं त्विदं महाद्वारि नागराणां प्रयच्छति प्रोत्या वरांश्च शतशो न किंचिन्न प्रयच्छति । मामकैः पूज्यते नित्यं नगर्या मम चैव तु तत्राचितश्च बहुशो देव्या मे तत्र कारणात् । न ददाति च पुत्रं मे कृतघ्नो बहुभोजनः अतो नार्हति पूजां तु मत्सकाशात्कथंचन । तस्मात्तु नाशयिष्यामि तस्य स्थानं दुरात्मनः एवं तु स विनिश्चित्य दुरात्मा राजकिल्विषो । स्थानं गणपतेस्तस्य नाशयामास दुर्मतिः भग्नमायतनं दृष्ट्वा राजानमगमत्प्रभुः । यस्मादनपराधं में त्वया स्थानं विनाशितम् अकस्मात्तु पुरी शून्या भवित्री ते नराधिप । ततस्तेन तु शापेन शून्या वाराणसी तदा ८२७ ॥४३ ॥४४ ॥४५ ॥४६ ॥४७ ॥४८ ॥४६ ॥५० ॥५१ ॥५२ ॥५३ से सन्तुष्ट होकर नगर निवासियों के लिए सहस्रों वरदान प्रदान किये, पुत्र, सुर्वण, दीर्घायु एवं अन्य सभी प्रकाश के मनोरथों की पूर्ति की १४१-४३। राजा दिवोदास की पटरानी का नाम सुयशा था जो परम साध्वी थीं । राजा को प्रेरणा से वह भी पुत्र प्राप्ति की कामना से उपस्थित हुईं और विपुल पूजा करने के उपरान्त पुत्रों का वरदान माँगा । इसी प्रकार वारम्वार आकर उन्होंने पुत्र प्राप्ति के लिए पूजा और वरदान याचना की १४४-४५ किन्तु निकुम्भ ने उक्त कारणवश पुत्रों का वरदान नही दिया, उसने सोचा कि यदि रानी को मैं वरदान न दूंगा तो राजा क्रुद्ध हो जायगा और तव हमारा सव काम सध जायगा । इस प्रकार बहुत समय व्यतीत हो जाने पर राजा को क्रोध आ गया, वह सोचने लगा कि यह भूत हमारी इस नगरी के महान् द्वारदेश पर स्थित है, नगरवासियों के ऊपर प्रसन्न होकर सैकड़ों वरदान इसने प्रदान किये, किन्तु हमें कुछ भी नहीं देता, हमारी ही प्रजाओं द्वारा इसकी पूजा नित्य होती है, मेरी ही नगरी में इसका आवासस्थल है, देवी ने मेरे कहने से इसकी अनेक प्रकार से पूजाएँ भी की, किन्तु इस कृतघ्न को मेरे लिए एक भी पुत्र देने का अवसर नहीं मिला, यह बड़ा खव्वू है, अतः आज से इसकी पूजा नहीं करनी चाहिये, मेरी ओर से इसकी पूजा किसी प्रकार भी नहीं होगी। इस दुरात्मा का स्थान नष्ट करा दूंगा ||४६-५०१ इस प्रकार का निश्चय कर दुरात्मा एवं कुटिल राजा ने कुमतिवश होकर गणेश्वर निकुम्भ का स्थान नष्ट करा दिया। अपने आवासस्थल को नष्ट भ्रष्ट देखकर परम प्रभावशाली गणपति निकुम्भ राजा के पास आये और बोले, तुमने यतः बिना किसी अपराध के हो हमारे स्थान को नष्ट करवा दिया है, इसलिये है नराधिप ! तुम्हारी यह नगरी बिना किसी