पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/८५३

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८३२ 'वायुपुराणम् बदरीफलमात्रं वै पुरोडाशं विधत्स्व मे । ब्रह्मर्षे येन तिष्ठेयं तेजसाऽऽप्यायितस्ततः ब्रह्मन्कृशोऽयं विमना हृतराज्यो हृताशनः । हतौजा दुर्बलो मूढो रजिपुत्रैः प्रसीद मे वृहस्पतिरुवाच यद्येव चोदितः शुक्र त्वया स्यां पूर्वमेव हि । नाभविष्यत्त्वत्प्रियार्थं नाकर्तव्यं ममानघ प्रयतिष्यामि देवेन्द्र त्वद्धितार्थं महाद्युते । तथा भागं च राज्यं च अचिरात्प्रतिपत्स्यसे तथा शक्न गमिष्यामि मा भूत्ते विक्लवं मनः । ततः कर्म चकारास्य तेजः संवर्धनं महत् तेषां च बुद्धिसंमोहमकरोदबुद्धिसत्तमः । ते यदा ससुता मूढा रागोन्मत्ता विधर्मिणः ब्रह्मद्विषश्च संवृत्ता हतवीर्यपराक्रमाः । ततो लेभे सुरैश्वर्य मैन्द्रस्थानं तथोत्तमम् ॥६२ ॥६३ ॥६४ ॥६५ ॥६६ ॥६७ ॥६८ अंश मेरे लिये वनाइये, जिससे टिक सकूँ, उसी के तेज से मेरी सन्तुष्टि हो सकेगी | ब्रह्मन् ! क्योंकि इस समय मेरी स्थिति बहुत शोचनीय हो गई है, मैं बहुत दुर्बल हो गया हूँ, मेरा मन नहीं लगता, मेरा राज्य पा छीन लिया गया है, भोजन भी छीन लिया गया है । मेरो सारी शक्ति नष्ट हो गई है, शरीर भी दुर्बल हो गया है, मेरी बुद्धि भी मारी गयी है, रजि के पुत्रों से हमारी रक्षा कीजिये 1६१-६३॥ बृहस्पति ने कहा—शक्र ! यदि तुम पहले हो मुझसे अपनी स्थिति बतलाये होते तुम्हारी यह स्थिति न होती, तुम्हारा कुछ भी अनिष्ट न होता, निष्पाप ! तुम्हारे कल्याण के लिए में कुछ भी अकर्तव्य नही समझता अर्थात् तुम्हारे लिए सब कर सकता हूँ | हे महाकान्तिशालिन् ! देवराज ! तुम्हारे लिए मैं वही प्रयत्न करूंगा, जिससे तुम्हारा अंश और राज्य तुम्हे पुन. शीघ्र ही वापस मिल जाय १२४-९५ हे शक्र ! मैं वैसा करने जा रहा हूँ, तुम मन की विकलता छोड़ दो ।' इस प्रकार इन्द्र को सान्त्वना देकर बृहस्पति ने इन्द्र को प्रताप-वृद्धि के लिए महान् अनुष्ठान किया | परम बुद्धिमान् वृहस्पति ने रजि के पुत्रो की बुद्धि को मोहित कर दिया। जिससे उन सब की मति मारी गईं, पुत्रों के समेत वे विधर्म में निरत हो गये, परिणामतः रोगग्रस्त एवं उन्मत्त से हो गये । ब्राह्मणों से द्वेष करने लगे, सब के पराक्रम एवं चल का विनाश हो गया । ऐसी दशा में, जब कि वे सब के सब काम क्रोध मोह में लिप्त हो गये, इन्द्र ने उन रजि पुत्रों का संहार कर डाला, और अपना उत्तम देवताओ का स्वामित्व पद पुनः प्राप्त किया । जो व्यक्ति शतऋतु इन्द्र