पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/८६७

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८४६ वायुपुराणम् तस्य वंशास्तु पञ्चैते पुण्या देवर्षिसत्कृताः । यैर्व्याप्ता पृथिवी कृत्स्ना सूर्यस्येव गभस्तिभिः ॥१०३ धन्यः प्रजावानायुष्मान्कीर्तिमांश्च भवेन्नरः । ययातेश्चरितं सर्व पठञ् शुण्वन्द्विजोत्तमः ॥१०४ इति श्रीमहापुराणे वायुप्रोक्ते ययातिप्रसवकीर्तनं नाम त्रिनवतितमोऽध्यायः ॥ १३॥ अथ चतुर्नवतितमोऽध्यायः कार्तवीर्यार्जुनोत्पत्तिविवरणम् सूत उवाच यदोवंशं प्रवक्ष्यामि ज्येष्ठस्योत्तमत्तेजसः । चिस्तरेणाऽऽनुपूर्व्या च गदतो मे निबोधत यदोः पुत्रा बभूवुहि पश्च देवसुतोपमाः । सहस्रजिदय श्रेष्ठः कोष्ठुर्नीलो जितो लघुः सहस्रजित्सुतः श्रीमाञ्शतजिन्नाम पार्थिवः । शतजित्सुता विख्यातास्त्रयः परमधामिकाः ॥१ ॥२ ॥३ उनके देवर्षियों द्वारा सत्कार पाने वाले ये पाँच वंश है जो, सूर्य की किरणों के समान समस्त पृथ्वी मण्डल को व्याप्त किये हुए है । जो उत्तम द्विज महाराज ययाति के इम उत्तम चरित्र का समग्र पाठ करता अथवा मुनता है, धन धान्य, पूजा, दीर्घायु, और कीर्ति प्राप्त करता है |१०२-१०४। श्री वायुमहापुराण मे ययातिप्रसवकीर्तन नामक तिरानबेवाँ अध्याय समाप्त ||१३|| अध्याय ६४ कार्तवीर्य अर्जुन की उत्पत्ति कथा सूत बोले- - अब मैं परम तेजस्वी ययाति के ज्येष्ठ पुत्र यदु के वंश का वर्णन विस्तारपूर्वक कम से कर रहा हूँ, सुनिये यदु के पाँच देवताओं के समान सुन्दर एवं प्रभावशाली पुत्र हुए, जिनमें सब से बड़े पुत्र कान सहस्रजित् था, अन्य पुत्रो के नाम कोष्टु, नील, जित और लघु थे |१-२॥ सहस्रजित् पुत्र परम कान्तिमान् राजा शतजित थे । शतजित के तीन परम विख्यात एवं परम धार्मिक पुत्र हुए। जिनके के