पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/८६८

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चतुर्नवतितमोऽध्यायः हैहयश्च हयश्चैव राजा वेणुयश्च यः । हैहयस्य तु दायादो धर्मतन्त्र इति श्रुतिः धर्मतन्त्रस्य कीर्तिस्तु संज्ञेयस्तस्य चाऽऽत्मजः | संज्ञेयस्य तु दायादो महिष्मान्नाम पार्थिवः आसीन्महिष्मतः पुत्रो भद्रश्रेण्यः प्रतापवान् । वाराणस्यधिपो राजा कथितः पूर्व एव हि भद्रश्रेण्यस्य दायादो दुर्मदो नाम पार्थिवः । दुर्मदस्य ततो धीमान्कनको नाम विश्रुतः कनकस्य तु दायादाश्चत्वारो लोकविश्रुताः । कृतवीर्यः कार्तिवीर्यः कृतवर्मा तथैव च कृतो जातश्चतुर्थोऽभूत्कृतवीर्यात्ततोऽर्जुनः | जज्ञे बाहुसहस्त्रेण सप्तद्वीपेश्वरो नृपः स हि वर्षायुतं तप्त्वा तपः परमदुश्चरम् | दत्तामाराधयामास कार्तवीर्योऽत्रिसंभवम् तस्मै दत्तो वरान्प्रादाच्चतुरो भूरितेजसः । पूर्वं बाहुसहलं तु स वव्रे प्रथमं वरम् अधर्मे दीयमानस्य सद्भिस्तस्मान्निवारणम् | धर्मेण पृथिवी चित्वा धर्मेणैवानुपालनम् सङ्ग्रामांस्तु बहूञ्जित्वा हत्वा चारीन्सहस्रशः | सङ्ग्रामे युध्यमानस्य वधः स्यादधिकाद्रणे तेनेयं पृथिवी कृत्स्ना सप्तद्वीपा सपत्तना | सप्तोदधिपरिक्षिप्ता क्षात्रेण विधिना जनाः तस्य बाहुसहस्रं तु युध्यतः किल धीमतः । यौद्धो ध्वजो रयश्चैव प्रादुर्भवति मायया ८४७ ॥४ ॥५ ॥६ ॥७ ॥८ 118 ॥१० ॥११ ॥१२ ॥१३ ॥१४ ॥१५ - नाम हैहय, हय और राजा वेणु हय थे। हैहय का उत्तराधिकारी राजा वेणु तंत्र हुआ - ऐसा सुना जाता है । धर्मतंत्र के पुत्र कीर्ति हुए, कीर्ति के पुत्र संज्ञेय हुए। संज्ञेय के उत्तराधिकारी राजा महिष्मान् हुए |३-५॥ महिष्मान् के पुत्र प्रतापशाली राजा भद्रश्रेण्य हुए, जो वाराणसी के अधिपति थे, इनके विषय में पहले ही कहा जा चुका है। भद्रश्रेण्य का उत्तराधिकारी राजा दुर्दम हुआ, दुर्दम का पुत्र परम बुद्धिमान् राजा कनक नाम से विख्यात हुआ | कनक के चार उत्तराधिकारी लोक विख्यात हुए, जिनके नाम कृतवीयं, कार्तिवीर्य, कृतवर्मा और कृत थे | कृतवीर्य से अर्जुन की उत्पत्ति हुई । वह राजा अर्जुन एक सहस्र चाहुओ वाला था तथा सातों द्वीपो का स्वामी था |६-६। उस राजा कार्तवीर्यार्जुन ने दस सहस्र वर्षो तक परम कठोर तपस्या कर भत्रि के पुत्र दत्त की आराधना को; दत्त ने उसे परम महत्वपूर्ण चार वरदान प्रदान किये थे, जिनमे से उसने पहला वरदान सहस्र बाहुओ का प्राप्त किया |१०-११। दूसरे वरदान के अनुसार अधर्म में नष्ट होते हुए लोक को सदुपदेशो द्वारा निवारित करना, तृतीय वरदान के अनुसार धर्मपूर्वक पृथ्वी विजय करके धर्म पूर्वक पालन करना, चतुर्थ वरदान के अनुसार अनेक संग्रामो मे विजय प्राप्त कर, सहस्रों शत्रुओं का विनाश कर रणभूमि मे अपने से अधिक बलवाले के हाथ मृत्यु प्राप्त करना | इन वरदानो को प्राप्त कर कार्तवीर्यार्जुन ने नगरो एवं सातों द्वीपों समेत पृथ्वी को जीतकर, सातों समुद्रों तक फैली हुई वसुंधरा पर क्षत्रिय धर्म से अधिकार प्राप्त किया। उस परम चतुर महाराज के युद्ध करने के समय माया से एक सहस्र बाहु हो जाते थे,