पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/८७५

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८५४ वायुपुराणम् ततः शरानथाऽऽदित्यस्त्वर्जुनाय प्रयच्छत | ततः संप्राप्य सुमहत्स्थावरं सर्वमेव हि आश्रमानथ ग्रामांश्च घोषांश्च नगराणि च । तपोतनानि रस्याणि वनान्युपदनानि च एवं प्राचीनमदहत्ततः सूर्यप्रदक्षिणम् । निर्वृक्षा निस्तृणा भूमिर्दग्धा सूर्येण तेजसा एतस्मिन्नेव काले तु आपको नियमस्थितः । दशवर्षसहस्राणि जलवासा महानृषिः पूर्ण व्रते महातेजा उदतिष्ठत्तपोधनः । सोऽपश्यदाश्रमं दग्धमर्जुनेन महानृषिः ॥ क्रोधाच्छशाप राजर्षि कोर्तितं वो यथा मया सूत उवाच क्रोष्टो: शृणुत राजवंशसुत्तमपुरुषम् । अस्यान्ववाये संभूतो वृष्णिवृष्णिकुलोद्वहः क्रोष्टोरेकोऽभवत्पुत्रो वृजिनीवान्महायशाः । वाजिनीवतमिच्छन्ति स्वाहिं स्वाहावतां वरम् स्वाहेः पुत्रोऽभवद्राजा रशादुर्ददतां वरः । सुतं प्रसूतमिच्छन्ति रशादोरग्र्यमात्मजम् महाक्रतुभिरोजे स विविधैराप्तदक्षिणः | चित्रश्चित्ररथस्तस्य पुत्रकर्मभिरन्वितः 118 ॥१० ॥११ ॥१२ ॥१३ ॥१४ ॥१५ ॥१६ ॥ १७ सुखा डालेंगे । और इस प्रकार पदार्थों के सूख जाने पर तो में उन्हें भस्म कर ही डालूंगा, तभी हमारी वास्तविक तृप्ति होगी।' ऐसी बाते करने के उपरान्त आदित्य ने राजा कार्तवीर्य को वे वाण प्रदान किये | उन वाणों को प्राप्त कर अर्जुन ने समस्त स्थावर पदार्थों को, जो विशाल भूमण्डल भर • व्याप्त थे, तथा आश्रम, ग्राम, गौओं के ठहरने के स्थान, नगर, तपोवन, सुरभ्य वन, उपवन सब को भस्म कर दिया और तदनन्तर सूर्य की प्रदक्षिणा की । सूर्य के तेज से भस्म पृथ्वी, वृक्षों और तृणों से विहीन हो गई। इसी अवसर महपि आप ने एक नियम किया था, जिसके अनुसार दस सहस्र वर्षों तक जल में निवास कर रहे थे । महान् तेजस्वी तपोधन आपव जब अपने नियम समाप्त कर जल से उठे और वाहर आये तो उन्होंने अपने आश्रम को अर्जुन द्वारा जलाया हुआ देखा । उस समय उन्होंने राजपि कार्तवीर्य को शाप दिया, उसे हम आप लोगो से बतला रहे हैं |७ - १३॥ सूत वोले- ऋषिवृन्द ! अब इसके बाद पुरुषरत्न राजपि क्रोष्टु के वंश का विवरण मुनिये, जिनके वंश में वृष्णिवंश के प्रवंतक वृष्णि का प्रार्दुभाव हुआ था । कोष्टु के एक मात्र पुत्र महा- यशस्वी वृजिनीवान् हुए । वृजिनीवान् के पुत्र स्वाहि को, जो स्वाहा करनेवालों ( यज्ञकर्ताओं) में श्रेष्ठ थे, लोग बहुत चाहते हैं | स्वाहि के पुत्र राजा रशादु दानियों में अग्रगण्य थे | रशादु के ज्येष्ठ पुत्र प्रसूत को प्रजाएँ बहुत चाहती थी, उसने ऐसे महान् यज्ञों का अनुष्ठान किया था, जिनमें प्रचुर दक्षिणाएँ दी गई थी । विचित्र ढंग के पुत्र प्राप्ति के कर्मों द्वारा उसे जो पुत्र उत्पन्न हुआ, चित्ररथ नाम से विख्यात हुआ । वीर