सप्तनवतितमोऽध्यायः दर्दर्द तस्याः सत्वरमाणायाः शीघ्रकारी सुरारिहा | स्त्रिया विष्णुस्ततो देव्याः क्रूरं बुद्ध्वा चिकोषितम् ॥ क्रुद्धस्तदस्त्रमाविध्य शिरश्चिच्छेद माधवः ॥१३६ ॥१४० ॥१४१ ॥१४२ तं दृष्ट्वा स्त्रीवधं घोरं चुकोप भृगुरीश्वरः । ततोऽभिशप्तो भृगुणा विष्णुर्भार्यावधे तदा यस्मात्ते जानता धर्मानवध्या स्त्री निषूदिता | तस्मात्त्वं सप्तकृत्वो वँ मानुषेषु प्रवत्स्यसि ततस्तेनाभिशापेन नष्टे धर्मे पुनः पुनः । लोके सर्वहितार्थाय जायते मानुषेष्विह अनुव्याहृत्य विष्णुं स तदादाय शिरः स्वयम् । सामानीय ततः काये अपो गृह्येदमब्रवीत् एष त्वां विष्णुना सत्ये हतां संजीवयाम्हम् | यदि कृत्स्नो गया धर्मश्चारितो ज्ञायतेऽपि वा ॥ तेन सत्येन जोवस्व यदि सत्यं ब्रवीम्यहम् । ॥१४३ ॥ १४४ सत्याभिव्याहृता तस्य देवी संजीविता तदा । तदा तां प्रोक्ष्य शीताभिरद्भिर्जीवेति सोऽब्रवीत् ॥ १४५ ततस्तां सर्वभूतानि दृष्ट्वा सुप्तोत्थितासिव | साधु साध्वित्यदृश्यानां वाचस्ताः सस्वनुदिशः ।।१४६ दृष्ट्वा संजीवितामेवं देवी तां भृगुणा तदा । मिषतां सर्वभूतानां तदद्द्भुतमिवाभवत् असंभ्रान्तेन भृगुणा पत्नीं संजोवितां ततः । दृष्ट्वा शक्नो न लेभेऽथ शर्म काव्यभयात्ततः ॥ १४७ ॥१४८ ने उस देवी को परम नृशंस कार्य करने के लिए समुद्यत जानकर परम क्रुद्ध हो गये थे अतः लक्ष्मीपति होकर भी उन्होंने स्त्री के शिर को अपने चक्र से काट डाला ११३८-१३६। इस कठोर स्त्री वध को देखकर परम ऐश्वर्यंशाली महर्षि भृगु अत्यन्त क्रुद्ध हुए, और उस समय उन्होंने अपनी स्त्री का निधन हो जाने पर विष्णु को इस प्रकार का शाप दिया - यतः धर्म की महत्ता को भली भाँति जानते हुए भी तुमने एक अवला की हत्या की, अत: तुम सात बार मनुष्य लोक में जन्म धारण कर निवास करोगे ।' भृगु के इस शाप के वश होकर भगवान् विष्णु धर्म के नष्ट हो जाने पर सव प्रजावर्ग के कल्याण के लिए बारम्बार जन्म धारण करते है । तदनन्तर भृगु 'भगवान् विष्णु को इस प्रकार शाप देकर स्वयमेव देवी का शिर लेकर उसे शरीर से संयुक्त कर और जल लेकर यह बचन बोले—“हे सत्ये ! विष्णु के द्वारा मारी गई तुझको मैं यह पुनः जीवित कर रहा हूँ, यदि मैंने धर्म के समस्त तत्त्वों को पूरी जानकारी प्राप्त की है तथा सर्वांशतः पालन किया है, तो हमारे उस सत्य से तुम जीवित हो जाओ । यदि मै सर्वदा सत्य वचन बोलता रहा होऊँ तो तुम जीवित हो जाओ' ११४०-१४४॥ महर्षि भृगु के इस प्रकार सत्य वचन बोलने पर जब देवी जीवित हो उठीं, तव उन्होंने शीतल जल से प्रोक्षित कर पुनः कहा, 'जो उठो ।' तदनन्तर समस्त जीवों ने देवी को सोकर उठी हुई की तरह देखा, दसों दिशाओ से 'साधु- साधु' को अदृश्य ध्वनि सुनाई पड़ने लगी। सभी लोगों के सामने महर्षि भृगु द्वारा देवी को इस प्रकार जीवित हो जाना एक अद्भुत घटना की तरह हुआ । परम सावधान चित्त वाले महर्षि भृगु द्वारा पत्नी को जीवित देखकर इन्द्र शुक्राचार्य के भय से परम भीत हो उठे, उनके मन में तनिक भी शान्ति नही रही । रात भर नीद
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