पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/९२६

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अष्टनवतितमोऽध्यायः अष्टनवतितमोऽध्यायः विष्णुमाहात्म्यकीर्तनम् सूत उवाच एवमाराध्य देवेशमीशानं नीलोहितम् । ब्रह्मेति प्रणतस्तस्मै प्राञ्जलिर्वाक्यमब्रवीत् काव्यस्य गात्रं संस्पृश्य हस्तेन प्रीतिमान्भवः । निकामं दर्शनं दत्वा तत्रैवान्तरधीयत ततः सोऽन्तर्हिते तस्मिन्देवेशानुचरे तदा । तिष्ठन्तीं प्राज्ञ्जलिर्भूत्वा जयन्तीमिदमब्रवीत् कस्य त्वं सुभगे का वा दुःखिते मयि दुःखिता । महता तपसा युक्तं किमर्थं मां जुगोपसि अनया सततं भक्तया प्रश्रयेण दमेन च | स्नेहेन चैव सुश्रोणि प्रोतोऽस्मि वरवणनि किमिच्छसि वरारोहे कस्ते कामः समृध्यताम् । तं ते संपूरयाम्यद्य यद्यपि स्यात्सुदुर्लभम्

  • अयं प्रयोग आर्षः ।

फा०-११४ अध्याय ८ विष्णु-माहात्म्य-कीर्तन ६०५ ॥१ ॥२ ॥३ ॥४ ॥५ ॥६ सूत बोले :- ऋषिवृन्द ! शुक्राचार्य ने इस प्रकार नीललोहित देवेश भगवान् शङ्कर की अराधना कर पुनः प्रमाण महादेव जो अपने हाथ से ११ - २ | देवेश के अन्तर्धान किया और हाथ जोड़े हुए ब्रह्म का उच्चारण किया, प्रार्थना से परम प्रसन्न शुक्राचार्य के शरीर का स्पर्श करा एवं पर्याप्त दर्शन देकर वहीं अन्तर्हित हो गये । हो जाने पर हाथ जोड़कर सामने उपस्थित जयन्ती से शुक्राचार्य बोले - 'सुन्दरि ! तुम किसकी पुत्री हो, मेरे दुःख के समय दुःख उठाने वाली तुम कौन हो ? ऐसी महान् तपस्या में निरत रहकर तुम किस लिए मेरी रक्षा मे दत्तचित रही हो । हे सुन्दर अंगों वाली, सुश्रोणि ! तुम्हारी इस सर्वदा एक रूप रहने वाली भक्ति, कष्टसहिष्णुता, प्रणय और स्नेह से मैं बहुत प्रसन्न हूं । हे सुन्दरि ! तुम क्या चाहती हो, मैं तुम्हारी किस कामना की पूर्ति करूँ, तुम्हारी जो भी अभिलाषा होगी – चाहे वह अत्यन्त कठिन ही क्यों न होगी मैं आज पूर्ण करना चाहूँगा' |३-६ | शुक्राचार्य के इस प्रकार कहने पर जयन्ती ने कहा,