पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/९२७

एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

वायुपुराणम् एवमुक्ताऽब्रवीदेनं तपसा ज्ञातुमर्हसि । चिकीपितं मे ब्रह्मिष्ठ त्वं हि वेत्थ यथातथम् एवमुक्तोऽब्रवोदेनां दृष्ट्वा दिव्येन चक्षुषा | माहेन्द्रो त्वं वरारोहे मद्धितार्थमिहाऽऽगता मया सह त्वं सुश्रोणि दश वर्षाणि भामिनि । अदृश्यं सर्वभूतेस्तु संप्रयोगमिहेच्छसि देवेन्द्रानलवर्णाभे वरारोहे सुलोचने । इमं वृणीष्व कामं ते मत्तो वै वलगुभाषिणि एवं भवतु गच्छामो गृहान्वै मत्तकाशिनि । ततः स्वगृहमागम्य जयन्त्या सहितः प्रभुः स तया संवसेद्देच्या दश वर्षाणि भागशः । अदृश्यः सर्वभूतानां मायया संवृतस्तदा कृतार्थमागतं दृष्ट्वा काव्यं सर्वे दितेः सुताः | अभिजग्मुर्गृहं तस्य मुदितास्ते दिदृक्षवः गता यदा न पश्यन्तो जयन्त्या संवृतं गुरुम् | दाक्षिण्यं तस्य तद्द्बुद्ध्वा प्रतिजग्मुर्यथागतम् बृहस्पतिस्तु संरुद्धं ज्ञात्वा काव्यं चकार ह | पित्रर्थे दश वर्षाणि जयन्त्या हितकाम्यया बुद्ध्वा तदन्तरं सोऽथ दैत्यानामिव चोदितः । काव्यस्य रूपमास्थाय सोऽसुरान्समभाषत ततः समागतान्दृष्ट्वा बृहस्पतिरुवाच तान् । स्वागतं मम याज्यानां संप्राप्तोऽस्मि हिताय च ॥७ 115 HIE ॥१० ॥११ ॥१२ ॥१३ ॥१४ ॥१५ ॥१६ ॥१७ ब्रह्मज्ञानी ब्रह्मर्षे ! मेरे मनोरथ को आप अपने तपोवल से जान सकते हैं. मेरी सारी अभिलाषाओं को आप जानते हैं ।' जयन्ती के ऐसा कहने पर शुक्राचार्य ने अपने दिव्य दृष्टि द्वारा उसके मनोरथों को जानकर बोले, 'इन्द्रपुत्रि ! सुन्दरि, तुम यहाँ मेरी रक्षा के लिए आई हुई थी, हे भामिनि ! सुश्रोणि ! मेरे साथ दस वर्षों तक सभी प्राणियों से अदृश्य रहकर तुम निवास करना चाहती हो, देवेन्द्रपुत्रि ! अग्नि के समान गोरवर्ण वाली ! सुन्दरि, सुलोचने ! मृदुभाषिणि ! अपने इस मनोरथ की मुझसे पूर्णता प्राप्त करोगो । तुम्हारा मनोरथ सफल होगा । मत्त चाल चलने वाली ! चलो, अब हम अपने निवास को चल रहे है ।" इस प्रकार जयन्ती से बातें कर भगवान् शुक्राचार्य अपने निवास स्थल पर आये और समस्त प्राणधारियों से अदृश्य होकर मायापूर्वक दश वर्षों तक उसके साथ निवास करने का निश्चय किया १७-१२। इघरा शुक्राचार्य को सफल मनोरथ होकर लौट आने का वृत्तान्त जब दैत्यों को विदित हुआ तो वे परम प्रसन्न हुए और देखने की इच्छा से उनके आश्रम पर गये । वहाँ जाने पर जयन्ती के साथ अज्ञात वास करते हुए अपने आचार्य को नहीं देख सके, और उनको इस नीतिनिपुणता को जानकर परम मुदित हुए। उधर देवगुरु बृहस्पति ने जब यह सुना कि देवताओं की हितकारिणी जयन्ती ने अपने पिता को हितकामना से दस वर्षों के लिए शुक्राचार्य के पास गई थी, शुक्राचार्य को एकान्तवास करते सुना तो एक अच्छा अवसर देखा ।१३-१५३। उन्होंने शुक्राचार्य का स्वरूप बनाकर इस मुद्रा में मानों दैत्यों ने उन्हें ही तपस्या के लिए प्रेरित किया था, शुक्राचार्य के दर्शन करने के लिए आये हुए असुरों से कहा- 'मेरे यजमानों का स्वागत है, तुम लोगों के हित के लिए मैं तपस्या से निवृत्त होकर आ गया। मैंने वह विद्या, जिसकी प्राप्ति के लिए