पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/९३३

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६१२ वायुपुराणम् ततः संवृत्तसंनाहा देवास्तान्समयोधयन् । दैत्यासुरे ततस्तस्मिन्वर्तमाने शतं समाः ॥ अजयन्नसुरा देवान्भग्ना देवा अमन्त्रयन् देवा ऊचुः षण्डामर्कप्रभावं न जानोमस्त्वसुरैर्वयम् | तस्माद्यज्ञं समुद्दिश्य कार्य चाऽऽत्महितं च यत् तज्ज्ञानापहृतावेतौ कृत्वा जेष्यामहेऽसुरान् । अथोपामन्त्रयन्देवाः षण्डामर्को तु तावुभौ यज्ञे समाहयिष्यामस्त्यजतमसुराद्विजौ | ग्रहं तं वा ग्रहोण्यामो ह्यनुजित्य तु दानवान् एवं तत्यजतुस्तौ तु षण्डामर्को तदाऽसुरान् । ततो देवा जयं प्राप्ता दानवाच पराभवन् +देवाऽसुराम्पराभाव्य पण्डामर्कावुपागमन् | काव्यशापाभिभूताश्च अनाधाराश्च ते पुनः बध्यमानास्तदा देवविवशुस्ते रसातले । एवं निरुद्यमास्ते वै कृताः शक्रेण दानवाः || ततः प्रभृति शापेन भृगुनैमित्तकेन च ॥६२ ॥ ६३ ॥६४ ॥६५ ॥६६ ॥६७ ॥६८ रहा। अन्त असुरों में देवताओ पर विजय प्राप्त की। पराजित देवताओं ने आपस में सम्मति की १५९-६२१ देवगण - बोले- हम लोग असुरों के सहायक पण्ड और अमर्क के प्रभाव को नही जानते । अतः अपने कल्याण के लिये हमें इस समय एक यश का अनुष्ठान करना चाहिये । उसमें इन्हे बुलाना चाहिये । उस यज्ञ में इनको बहका कर हम असुरो को जीत लेंगे। देवताओं ने एकान्त में इस प्रकार की मंत्रणा कर एक यज्ञ का अनुष्ठान प्रारम्भ किया और उसमें पण्ड और अमर्क का आवाहन किया यज्ञ में आने पर उनसे निवेदन किया-द्विजवयं ! हम इसी प्रकार वरावर यज्ञादि शुभकार्यो मे आप को बुलाते रहेंगे, आप असुरों को संगति छोड़ दीजिये, दानवों को पराजित कर लेने के उपरान्त हम उन्हे फिर ग्रहण कर सकते हैं |६३-६६ | देवताओं ने जब इस प्रकार अनुरोध किया तो पण्ड और अमर्क ने दानवो का संग छोड़ दिया, परिणाम स्वरूप देवता लोग जीत गये, दानवो को पराजय हो गई । देवतागण असुरों को पराजित कर लेने के उपरान्त पुन पण्ड और अमर्क के पास आये। शुक्राचार्य के शाप से पराजित एवं निराश्रित दानव जब देवताओं द्वारा पीड़ित होकर रसातल को चले गये । इन्द्र ने इस प्रकार उन दानवों को अपनी बुद्धिमत्ता से अकर्मण्य वना दिया। तभी से महर्षि भृगु के उसी नैमित्तिक शाप के कारण जब जब यज्ञादि का ह्रास होने लगता है धर्म की शिथिलता होने लगती है, तब तब + अत्र संघिराषः ।