पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/९४४

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नवनवतितमोऽध्यायः ॥३६ ॥४० ॥४२ अयं हि मे महागर्भो रोचसेऽति बृहस्पते | अशिजं ब्रह्म चाभ्यस्य षडङ्गं वेदमुद्गिरन् अमोघरेतास्त्वं चापि न मां भजितुमर्हसि । अस्मिन्नेव गते काले यथा वा सन्यसे प्रभो एवमुक्तस्तया सम्यग्बृहत्तेजा बृहस्पतिः | कासात्मानं महात्माऽपि नाऽऽत्मानं सोऽऽस्यधारयत् ॥४१ संबभूवेव धर्मात्मा तथा सार्धं बृहस्पतिः | + (उत्सृजन्तं तदा रेतो गर्भस्थः सोऽभ्यभाषत नोस्नातक न्यसे (?) ह्यस्मिन्द्वयोर्तेहास्ति संभवः | अमोघरेतास्त्वं चापि पूर्व चाहमिहाऽऽगतः ॥४३ शशाप तं तदा क्रुद्ध एवमुक्तो बृहस्पतिः । ] अशिजं तं सुतं भ्रातुर्गर्भस्थं भगवानृषिः यस्ममात्स्वमीवृशे काले सर्वभूतेप्सिते सति । मामेवमुक्तवान्मोहात्तमो दीर्घं प्रवेक्ष्यसि ततो दोर्घतमा नाम शापादृषिरजायत । अथाशिजो बृहत्कीतिबृहस्पतिरिवौजसा ऊर्ध्वरेतास्ततश्चापि न्यवसातुराश्रमे । गोधर्मं सौरभेयात्तु वृषभाच्छू तवान्प्रभो तस्य भ्राता पितृव्यस्तु चकार भवनं तदा । तस्मिन्हि तत्र वसति यदृच्छाभ्यागतो वृषः ॥४४ ॥४५ ॥४६ ॥४७ ॥४८ ६२३ यह हमारा महान् गर्भं अपने तेज से परम प्रकाशित हो रहा है, यह गर्भावस्था में ही अशिज के अंशभूत होने के कारण षडंग वेदों का उच्चारण करता है एवं ब्रह्म का अभ्यास करता है |३६-३६ | तुम भी अमोघवीर्य वाले हो, इसलिए ऐसी स्थिति में मेरे साथ समागम नहीं कर सकते । हे सर्वसमर्थ ! इस काल के व्यसीत हो जाने के उपरान्त तुम्हारी जैसी इच्छा हो, करना । ममता के इस प्रकार कहने पर परम तेजस्वी बृहस्पति महात्मा होकर भी अपनी काम वशीभूत आत्मा को वश में न रख सके । परम धर्मात्मा होकर भी उन्होंने ममता से समागम किया, जिस समय वीर्यधान कर रहे थे, गर्भस्थ शिशु ने उनसे कहा- तात ! आप आप अपना वीर्य यहाँ न निहित करें, क्योंकि इसमें दो प्राणियों का निवास सम्भव नहीं है । तुम भी अमोघवीर्य वाले हो, मैं यहाँ पहिले ही से उपस्थित हूँ |४०-४३। गर्भस्थ शिशु इस वाक्य से बृहस्पति के वीर्याधान में बाधा पहुँची। परम तेजस्वी ऋषिवर बृहस्पति ने अप्रसन्न होकर अपने बड़े भाई अशिज के संयोग से समुत्पन्न गर्भस्थ शिशु को शाप दिया कि सभी प्राणधारियों के परम अभीष्ट ऐसे सुखमय अवसर मे तुमने बाँधा पहुँचाई है, अज्ञानवश तुमने मुझको ऐसा कहा है, अतः महान् अंधकार को प्राप्त होगे । बृहस्पति के शाप के कारण वह शिशु दीर्घतमा ऋषि के नाम से विख्यात हुआ। ऋषिवर अशिज भी वृहस्पति के समान तेजस्वी एवं परम यशस्वी थे।४४-४६। उनके पुत्र दीर्घतमा परम ब्रह्मचारी थे, और उनके भाई के आश्रम में निवास करते थे, सुरभी के पुत्र एक वृषभ से उन्होंने एक बार गोधर्म का श्रवण ग्रहण किया था | अशिज के भ्राता एवं दीर्घतमा के पितृव्य बृहस्पति ने उनके निवासार्थं एक भवन का निर्माण + एतच्चिह्नान्तगंतग्रन्थो ङ पुस्तके नास्ति ।