पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/९९२

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शततमोऽध्यायः वैराजस्तमुपासीनं धर्मेण च भवेन च । भवधर्मसमीपस्थं दक्षं ब्रह्माऽभ्यभाषत दक्ष कन्या तवेयं वै जनयिष्यति सुव्रत । चतुरो वै मनून्पुत्रांश्चातुर्वर्ण्यकराञ्शुभान् ब्रह्मणो वचनं श्रुत्वा दक्षो धर्मो भवस्तदा । तां कन्यां मनसा जग्मुस्त्रयस्ते ब्रह्मणा सह सत्याभिध्यायिनां तेषां सद्यः कन्या व्यजायत । सदृशानुरूपांस्तेषां चतुरो वै कुमारकान् संसिद्धा कार्यकरणे संभूतास्ते श्रियाऽन्विताः । उपभोगसनर्यैश्च सद्योजातैः शरीरकैः ते दृष्ट्वा तान्स्वयं बुद्ध्वा ब्रह्म व्याहारिणस्तदा । संरब्धा वै व्यकर्षन्त मम पुत्रो मत्युत अभिध्यानान्मनोत्पनाचुर्वे ते परस्परम् | यो यस्य वपुषा तुल्यो भजतां स तु तं सुतम् यस्य यः सदृशश्चापि रूपे वीर्ये च नामतः । तं गृह्णातु सुभद्रं वो वर्णतो यस्य यः समः ध्रुवं रूपं पितुः पुत्रः सोऽनुरुध्यति सर्वदा । तस्मादात्मसमः पुत्रः पितुर्मातुश्च वीर्यतः एवं ते समयं कृत्वा सुवर्णा जगृहुः सुतान् । *यस्मात्सवर्णास्तेषां वै ब्रह्मादीनां कुमारकाः ६७१ ॥४३ ॥४४ ॥४५ ॥४६ ॥४७ ॥४८ ॥४६ ॥५० ॥५१ ॥५२ साथ वैराज नामक लोक में विराजमान थे । दक्ष को भव और धर्म के समीप खड़ा देखकर ब्रह्मा ने कहा, सद्व्रतपरायण दक्ष ! तुम्हारी यह कल्याणी कन्या चार पुत्रों को उत्पन्न करेगी, वे चारों भावी काल में चारों वर्षों के संस्थापक कल्याणकारी मनु के रूप में विख्यात होंगे। ब्रह्मा की ऐसी वाणी सुनकर दक्ष, धर्म और भव ब्रह्मा के साथ हो मन ही मन उस कन्या के साथ संगमन किया। सत्य का ध्यान करनेवाले इन महान् तपस्वियों के मानसिक संकल्प के अनुसार उस कन्या ने उन्हीं चारों के अनुसार चार सुन्दर कुमारों को उसी क्षण उत्पन्न किया |४३ ४६। वे कुमार समस्त कार्यों के पूर्ण करनेवाले, परम बुद्धिमान्, एवं अपने उसी सद्योजात शरीर से विविध भोगों के उपभोग में सामर्थ्य रखने वाले थे । इन चारों कुमारों को देखकर इन समस्त ब्रह्मवेत्ता देवताओं में 'यह मेरा पुत्र है', 'यह मेरा पुत्र', इस प्रकार की बातें कह कह कर छीना झपटी होने लगी और क्रोध का प्रदर्शन होने लगा । वे चारों पुत्र उन चारों महान् प्रभावशाली देवताओं के मानसिक अभिध्यान से उत्पन्न हुए थे, अतः उन सब ने परस्पर यह तय किया कि इन सब में जो शरीर में जिसके समान हो, वह उसी को अपना पुत्र माने १४७-४६। स्वरूप, पराक्रम नाम और वर्ण में जो पुत्र जिसके समान हो वह उस पुत्र को ग्रहण करे । पुत्र सर्वदा पिता के स्वरूप का अनुकरण करता है, पराक्रम में भी पुत्र माता और पिता के समान होता है, यह निश्चित है कि पुत्र अपने ही समान होता है, अतः जो जिसके समान हो वह उसी का पुत्र है । ब्रह्मा आदि देवताओं ने परस्पर इस प्रकार की सम्मति करके अपने अपने समान आकृति, वर्णं और पराक्रम वाले पुत्रों को ग्रहण किया १५०-५२० वे

  • इतःप्रभृति मनवः स्मृता इत्यन्तग्रन्थो ग. पुस्तके नास्ति ।