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 पृथ्वी से उठी धूलि से पुष्पो का मकरन्द, गन्दा हुआ देखकर, भ्रमरो ने नन्दन वन को निश्चय ही त्याग दिया था । क्यों कि धूलिजनित अन्धकार के आधिक्य के मिप से आकाश मानों भौरों से छाया हुआ था । अर्थात् धूलि जनित कॄष्णवर्ण अन्धकार मानो कृष्णवर्ण के भौरें ही ये ।

जैत्रवाजिपृतना-खुरक्षत-क्षोणिधूलिपटलीभिरध्वसु ।
तद्धलस्य सुगमत्वमागमन् पूरितानि विषमस्थलान्यपि ॥७०॥

अन्वय:

 अध्यसु जैत्रयाजिपृतनाखुरक्षोणिधूलिपटलीभिः पूरितानि विषमस्थलानि अपि तद्वलस्य सुगमत्वम् आगमन् ।

व्याख्या

 अध्वसु मार्गेषु जैत्रा जयशीला 'जैत्रस्तु जेता योऽगच्छत्यलं विद्विषतः प्रति' इत्यमरः । या वाजिनामश्वाना पूतनाः सेनाः 'पूतनाऽतोकिनी चमू:' इत्यमरः । तासा खुरै: शफैः क्षता विदारिता क्षोणि. पृथ्वी तस्या घूलयो रजासि तासां पटलीभिस्समूहैर्जयनशीलाश्वसेनाशफविदारितभूमिसमुत्थितरजस्समूहै: पूरितानि व्याप्तानि समीकृतानीत्यर्थ:}}

भाषा

 मार्गों में, विजयी घोडो की सेनाओ के खुरो से खुदी भूमि के धूलि समूहो से भरी गई हुई नीची ऊँची जमीन, समथल होकर, चोल राजा की सेना के सुगमता से चलने के काम में आई ।

चेतसोऽपि दधतीरलङ्घ्यतां लङ्घ्यद्भिर्वटस्थली भुवः।
तस्य वाजिभिरजायत क्षितिर्भ्रान्तवातहरिणेव सर्वत: ॥।७१॥