• विषयकभावेऽङ्गस्वाप्रेयोऽलङ्कारः । वीररसस्याऽङ्गत्वाद्रसालङ्कारश्च । काव्ये ऽस्मिन्वीररसोऽङ्गीति मङ्गलेनैव सूच्यते । सर्गेऽस्मिनूपजातिवृत्तम् । पूर्वार्द्ध उपेन्द्रवज्ज्ञाछन्द उत्तरार्द्ध चेन्द्रवत्रा-छदः । 'उपेन्द्रवज्त्रा जतजास्ततो गौं। ' ‘स्यादिन्द्रवत्रा यदि तौ ज गौ गः'। ‘अनन्तरोदीरितलक्ष्मभाजौ पादौ यदीया बुपजातयस्तः । भाष पूण्य भूमि भारतवर्ष में ग्रन्थ की निवध्न समाप्ति के ध्येय से ग्रन्थ के आदि में मङ्गलाचरण करने की प्रथा बहुत प्राचीन काल से चली आ रही है । इसको ध्यान में रखते हुए महाकवि श्री विल्हण अपने ग्रन्थ के प्रारम्भ में मङ्गलाचरण करते हैं । कंस के शत्रु श्री कृष्ण के भुजा की, दण्डे के ऐसी सधी ऊपर उठने वाली कान्ति के समान शोभायमान । उनकी तलवार आप लोगों का संरक्षण करे, जो धार के पानी में प्रतिबिम्बित पाञ्चजन्य शंख की श्वेत परछाही के मिष से मानो जल के फेन को प्रकट करती है । मङ्गलाचरण म वीररस की झलक होने से यह काव्य वीर-रस वाला है । ऐसा सूचित होता है । श्रीधाम्नि दुग्धोदधिपुएडरीके यश्चञ्चरीकद्युतिमातनोति । नीलोत्पलश्यामलदेहकान्तिः स वोऽस्तु भूत्यै भगवान्मुकुन्दः ॥२॥ अन्वयः यः श्रीधाम्नि दुग्धोदधिपुण्डरीके चञ्चरीकद्युतिम् आतनोति सः नीलोत्पलश्यामलदेहकान्तिः भगवान् मुकुन्दः वः भूत्यै । अस्तु
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