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अ. १ आ. १ सू. ८

सः योगः ॥ १६ ॥ ': ' ' ' । ।

'मन का ‘आत्मा में स्थित होने पर उस का (=मन के कर्म का जो) अंनारम्भ है, वह योग है, जो शारीरके दुखा भाव का हेतु है।

अपसर्पणमुपसर्पणमशितपीतसंयोगाः कार्या न्तरसंयोगाश्चेत्य दृष्टकारितानि ॥ १७ ॥

(यह, जो मरने के समय मन का, पूर्व देह से) निकलना और (दूसरे देह में.) भवेश.करना है, तथा (जन्म से ही ); जो खाने पीने की वस्तुओं के संयोग:हैं, तथा दूसरे शरीर का, संयोग है, य(सव मनुष्य-क) अदृष्ट से कराए जाते हैं। .

तदभावें संयोगाभावोऽप्रादुर्भावश्चमोक्षः १८

'( तत्त्वज्ञान से) उस ( अदृष्ट) का अभाव हो जाने पर ( पूर्व शरीर से ) संयोग-का अंभाव और नए का प्रकट नं होना मोक्ष है।

संस-अन्धकार की भी गतेि परीक्षणीय है, इस पर कहते हैं

द्रव्यगुणकर्मनिष्पात्तवैधम्र्याद्भाभावस्तमः१९

द्रव्य गुण कर्म की उत्पत्ति से विरुद्ध धर्म वाला होने से प्रकाशा का अभाव'हें अन्धकंार ।

व्या-अन्धकार नित्य तो है नहीं, क्योंकिसदा'नहीं रहता।। कार्यमानें, तोकॉर्यद्रव्यं अवयवों से उत्पन्न होता है, अन्ध कारं प्रकाश के दूर-होने पर सहसैव प्रकट हो जाता है, और स्पर्श वालाभी नहीं है और गुण और कर्म विना द्रव्य के रंह