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'वैशेषिक-दर्शन ।

स्वीकार करे. यह बड़ा अन्तग्क्षि तुझे स्वीकार करे ( अर्थात् यह धन मैं भूमण्डन् के उपकार के लिए, चा यज्ञ द्वारा वायु आदि की पुष्टि के लिए स्वीकार करता हूं) जिस से कि मैं प्रतिग्रह लेकर न प्राण में, न मन मे, न सन्तति से हीन होउँ ।

यहां जो दान लेन का आधिकार उस को दिया है, जिस के सामने भूमण्डल और वायुमण्डल को पुण्यमय वनाने से अतिरिक्त अपना कोई स्वार्थ नही । और साथ ही यह भी बतला दिया है, कि प्रतिग्रह लेकर प्रतिग्रहीता याढि भूमण्डल ऑर वायु मण्डल क उपकार म भटत रहता ह ता उस का प्राण, मन और सन्तान ( आयु आत्मवल और सन्तति ) बढ़ती है, और यदि उक्त उपकार मे प्रवृत्त न रहकर स्वार्थ में प्रवृत्त रहता है. तो प्रतिग्रह से उम की आयु आत्मवल और मन्तति घटती है । यह सव उदार और यथार्थ बुद्धि के चिन्ह हैं।

इन हेतुओं से पष्ट है, कि वेद उम की कृति है, जिस को कर्म के लौकिक ओर अलौकिक फलों का यथार्थ ज्ञान है. वेद का उपदेश भ्रम और प्रमाद से शून्य है, अतएव धर्म में प्रमाण है ।

संस-धर्मा धर्म में वेद की प्रमाणता स्थापन करके, धर्म के फल की विवेचना आरम्भ करते हुए पहले सामान्य नियम यनलाते हैं

आत्मान्तरगुणानामात्मान्तरे ऽकारणत्वात् ॥५॥

क्योंकि अन्य आत्मा के गुण न्य आमा मे कार्यकर नही होते ( इस लिए फल अपने ही वि ये का मिलता है ) म-टान में पात्र प्रपात्र की विवेचना टिग्नल्टाते हैं

तद्दुष्ट भोजने न विद्यते ॥ ६ ॥