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अ. १ आ. १ सू. ८

वह (पुण्य) दुष्ट के खिलाने में नहीं होता है ।

दुष्ट हिंसायाम् ॥ ७ ॥

हिंसा में भद्यत्त को दुष्ट (जाने। हिंसा, सताना द्रोह करना)

तस्य समभिव्याहारतो दोषः ॥ ८ ॥

उस के (दुष्ट के ) संसर्ग से भी दोष होता है।

तद् दुष्ट न विद्यते ॥ ९ ॥

वह ( मंमर्ग दोष ) अदुष्ट मे नहीं होता है (दुष्टों में रह कर भी याद स्वयं दोषों से शून्य रहता है. तो फिर संसर्गदोष उस का नहा लगता ह । अन्यथा उन म रह कर उन का सुधार करने वाला भी दोषभागी हो )

पुनर्विशिष्ट प्रवृत्तिः ॥ १० ॥

( दान का जब २ प्रसंग हो ) वार २ अपने से उत्तम में

समे हीने वा प्रवृत्तिः ॥ ११ ॥

(अपने से उत्तम न भी हो, तो) अपने संमान में वा अपने से हीन में प्रवृत्ति करे (किन्तु दुष्ट न हो )

एतेनहीन समविशिष्ट धार्मिकेभ्यः परस्वादानं व्याख्यातम् ॥ १२ ॥

इस से हीन, सम औ। विशिष्ट धार्मिकॉभे दान लेना भी च्याख्या कया गया . दान भी अपने से हीन, सम वा विशिष्ट से लवे, पर ले धार्मिक ग् इी अधार्मिक से कभी नहीं )