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अ. १ आ. १ सू. ८

सं-उनमें से अदृष्ट प्रयोजन वाले कुछ कर्म दिखलाते है

अभिषेचनोपवास ब्रह्मचर्यगुरुकुल वासवान प्रस्थयज्ञदानप्रेोक्षणदिङ्नक्षत्रमन्त्रकालनियमाश्चा

। (यज्ञ के आरम्भ में विधिवत् ) अभिषेक, उपवास, ब्रह्म चर्य, (चेदाध्ययन के लिए यथाविधि ) गुरुकुल वास, वानप्रस्थ के तप, यज्ञ, दान (यज्ञों में व्रीहि आदि का ) प्रोक्षण, (कर्म नुष्ठान में) दिशा का नियम, नक्षत्र का नियम, मन्त्र का नियम और काल का नियम, ये अदृष्ट फल के लिए हैं ( अर्थात् आत्मा म धर्म का उत्पन्न करक, उस धम द्वारा फल जनक होते हैं)

चातुराश्रम्य मुपधा अनुपधाश्च ॥ ३ ॥

चारों आश्रमों में कहा कर्म, उपध और अनुपधा ( रूप हो कर फलप्रद होता है)

भावदोष उपधाऽदोष ऽनुपधा ॥ ४ ॥

भाव का दोष उपधा और दोष का अभाव अनुपधा है ॥ अर्थात आश्रम कर्म यदि शुद्ध भावों से किये जाते हैं, तो अभ्युदय के लिए होते हैं और यदि दुष्ट भावों (मद मानलोभ मोहjसे प्रेरित हो कर किये जाते हैं, तो अभ्युदय के लिए नहीं, किन्तु अनिष्ट फल के जुनक होते हैं।

यदिष्टरूपरसगन्धस्पर्श प्रोक्षितमभ्युक्षितं च तच्छाचेि ॥ ५ । .