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अ. १ आ. १ सू. ८

बात को स्वीकार नहीं करते, किनियम से पहले दो ही पर - माणु मिलते हैं, और फिर तीन ही चणुक मिलते हैं, और न यह कि जो झरोखे-में त्रसरेणु दीखते हैं, वह छः ही परमाणुओं के हैं । अर न यह, कि सख्या का कारण न मानन म अणु से अणुतर उत्पन्न होगा । किन्तु यह मानते हैं, कि अवयवों का परिमाण अवयवी के परिमाण का आरम्भक होता है, और वह सारे अवयवों के एकत्रित पिण्ड कं समांपण्ड होता हैं । दो मिलेंगे, तो दो के समपिण्ड होगा,'दस मिलेंगे, तो दस कें समपिण्ड होगा । जब दृष्टि योग्य महृत होगा, तब दीखने लगेगा । रुईका भी परिमाणपरिमाण जन्य ही है, धुननसे उस कें ‘अवयव शिथिल हो गए हैं, उन शिथिल अवयवों के पिण्डं के मपिण्ड नया परिमाणे उत्पन्न हुआ है ।': ' । । सं-यदि अणुत्व महत्व से विपरीत होता है, तो फिर अणुत्व औौर महत्वं इकठ्ठ नहीं रहँसकेंगे, “पर'प्रतीत इकंछे-होते है, जैसे -त्ती'से'आमंला पंड्रॉ*है, अनारसे छोटा है? इस कॉउत्तर देते हैं

अणुमहदिति तस्मिन् विशंषभावाद् विशेषं भावांच ।। ११ । ।

५अणु महद यह उस (एक) में विशेष होने से'और विशेष । के न होने से होता है (रतीं की अपेक्षा आमले में विशेषता ई, रत्ती की अपेक्षा उसे का पिण्डं ‘अधिक स्थान कॅौ धेरंता है, इस लिए वह उससे । मंह कहलाता है, और अनीर की कहलाता है। अर्थातू, यह अणुत्व'महत्व, व्यवहार सापेक्ष होने ,से, गौण है, मुख्य नहीं,! क्योंकि -..