व्या-जैसे सत्ता अपनी विलक्षण प्रतीति के कारण इम्प गुण कर्म से भिन्न मानी है ( १ । २ । ८-१०) वैसे समवाप अपनी विलक्षण प्रतीति के कारण द्रव्यत्व गुणत्व से भिन्न है। ‘यह रूप वाला है? यह इस की विलक्षण भतीति है ।
तत्त्वं भावेन ॥ २८ ॥
एक होना सत्ता से व्याख्यात है ।
व्या-जैम 'सत स ? इस एकाकार प्रतीति से सत्ता एक है, वैसे द्रव्य में गुण ममवेत है, कर्म समवेत है, इस प्रकार एका कार प्रतीति ती है, भेदक प्रमाण है नहीं, इस लिए लापव से एक समवाय सिद्ध होता.है ।
अष्टम अध्याय प्रथम आकि ।
संगति-भब अष्टम अध्याय में क्रमप्राप्त बुद्धि का सविस्तर वर्णन करते है
द्रव्येषु ज्ञानं व्याख्यातम् ॥ १ ॥
द्रव्यों में (द्रव्यों के निरूपण में तृतीय अध्याय में) ज्ञान व्याख्यात है (ज्ञान से आत्मा की सिद्धि की है वह ज्ञान अव परीक्षणीय है) । तत्रात्मामनश्चा प्रत्यक्षे ॥ २ ॥
, उन गें से आत्मा और मन'अप्रत्यक्ष हैं, (यंयपि “अहं सुखी ' इत्यादि प्रतीति का विपय आत्मा प्रत्यक्षहै, तथापि शीर आदि मे उस का भेद अनुमान साध्य है, जैसा ३ भध्याप में दिखला दिया है ) । ।