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अ. १ आ. १ सू. ८

अ० ९ आ०१ सू०१०

संगति-प्राग भाव का प्रत्यक्ष भी इसी रीति से होता है, यह दिखलाते है

तथाऽभावे भाव प्रत्यक्षत्वाच ॥ ७ ॥

(जैसे ध्वंम में प्रत्यक्ष होता है) वैसे प्रागभाव में (प्रत्यक्ष होता है) सामग्री के प्रत्यक्ष होने से (जव चाक पर चढ़ी हुई मट्टी देखली, तो घड़े का मागभाव प्रत्यक्ष हो जाता है, कि अभी घड़ा नहीं है, अब होगा ) । .

संस-अन्योऽन्या भाव की प्रत्यक्षता दिखलाते हैं।

एतनाघटौऽगौर धर्मश्च व्याख्यातः ॥८॥

इस से * यह अघट है, यह अगौ है, यह अधर्म है ? यह व्याख्या किया गया (अघट है घड़ से भिन्न है । जब घड़ा प्रत्यक्ष है, तो घड़े से भेद भी प्रत्यक्ष होगा इत्यादि ) ।

सं-अत्यन्ताभाव का भी प्रत्यक्ष कहते है

अभूतं नास्तीत्यनर्थान्तरम् ॥ ९ ॥

हुआ नहीं, है नहीं, यह एक ही बात है।

व्या-अत्यन्ताभाव की प्रतीति दो मकार से होती है, मनुष्य का सींग कभी हुआ ही नहीं वा मनुष्य कां सींग नहीं हैं । यह दानां मकार का ज्ञान प्रत्यक्ष हाता हैं ।

नास्ति घटोगेह इति सतो घटस्यगेहंसंसर्ग प्रतिषेधः ।। १० ॥

‘नहीं है घड़ा घर में ’ यह विद्यमान घड़े का घर से संयोग का निषेध है यहमतीति, अत्यन्ताभाव से विलक्षण है। पर ग्रन्थ