व्या-स्वप्र में ही देखी घस्तु को फिर स्वप्त में ही देखता
- वा स्वप्र के अन्दर ही यह ज्ञान हो जाता है, ‘कि यह तो
स्व था, यह स्वान्तिक ज्ञान भी आत्मा मन के संयोगविशेष से और पूर्वले संस्कार से ही होता है । भद केवल इतना है, कि स्वप्त ज्ञान अधिक पूर्व के संस्कारों से होता है, और स्वा न्तिक तात्कालिक संस्कारों से होता है ।
धमाच ॥ ९ ॥
धर्म से भी (स्वप्त होता है, जब कि स्वप्त द्वारा भावि सूचना मिल जाती है) ।
संस०-ज्ञान की परीक्षा करके, अब झान की यथार्थता अयथा थैता की परीक्षा करते है
इन्द्रियदोषात् संस्कारदोषाचा विद्या ॥१०॥
इन्द्रियों के दोष से और संस्कार के दोष से अविद्या होती है ।
व्या-इन्द्रियों में दोष होने से प्रत्यक्ष में भूल होती है। और संस्कारों के दोष से अनुमान और स्मृति में भी भूळ होती है ।
तद्दुष्टज्ञानम् ॥ ११ ॥
वह दुष्ट ज्ञान है।
अदुष्ट,विद्या ॥ १२ ॥
दोष शून्य ज्ञान (मैशय और भ्रम से शून्य ज्ञान) विद्या है आर्ष सिद्धर्दशनं च धर्मेभ्यः ॥ १३ ॥