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अ. १ आ. १ सू. ८

आर्ष ज्ञान (जो ऋषियों को परमात्मा से, मिलता है ) और सिद्ध दर्शन ( जो सिद्धों को योग सामथ्र्य से अतीन्द्रिय पदार्थो का साक्षात् दर्शन होता है, यह घर्मो से होता है (धर्म भावों से हृदय के भरा रहने से होता है) ।

अध्याय १० आह्निक १

संगति-बुद्धि के अनन्तर क्रमप्राप्त सुख दुःख की परीक्षा करते हैं इष्टानिष्टकारणविशेषाद् विरोधाच मिथः

सुखदुःखयोरर्थान्तरभावः ॥ १ ॥

इष्ट और अनिष्ट कारण के भेद सें और परस्पर के विरोध से सुस्र और दुःख का भेद है ।

व्या-सिर पर भार उठा कर गर्मी में मार्ग चलता हुआ पुरुप जब किसी वृक्ष की छाया में पहुंच कर सिर से भार उतार कर चैठता है, तो कहता है, 'मैं सुखी हो गया हूं ? वहां उस का दुःख दूर होने के सिवाय कोई और बात नहीं हुई, तो भी वह अपने को सुखी मानता है, इत्यादि दृष्टान्तों से कई लोग यह, स्थिर करते हैं, कि दुखाभाव ही मुख है, सुख कोई अलग वस्तु नहीं, इस मत का खण्डन करते हैं, कि सुख और दुख. दो अलग पदार्थ हैं, क्योंकि इन के कारण में स्पष्ट भेद है । इष्ट की प्राप्ति सुख का कारण है, और अनिष्ट की प्राप्ति दुःख का’ कारण है। दूसरा इन का आपस में विरोध डै । सुख और दुःख दोनों इकट्ट नहीं होते। इन के कार्य का भी भेद है; मुख , स मुख प्रसन्न होता है, दुःख स मुरझा जाता है.I.इस लिए मुखः और दुःख दो अलग. २ .पदार्थ हैं । दुःखाभाव, में जो,मुख .