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'वैशेषिक-दर्शन ।

व्यवहार है, बह औपचारिक है। उस से सुख की मुख्य प्रतीति का अपलाप नहीं हो सकता ।

संगति-“सुख दुःख'झान की ही अवस्था विशेष हैं, ऐसा मानने वाले को उत्तर देते है

संशयनिर्णयान्तरा भावश्च ज्ञांनान्तरत्वे हेतुः ॥३

संशाय और निर्णय के अन्दर न होना (दुःख मुख के ) ज्ञान से अलग होने में हेतु है।

व्या-ज्ञान के दो विशेष हैं-संशय और निर्णय । मुख दुःख यदि ज्ञान होता, तो इन दोनों में से एक होता, पर वह इन दोनों में से नहीं, क्योंकि संज्ञाय दो कोटियों को विषय करता है, और निर्णय एक कोटि को, और सुख दुःख स्वयं विषय रूप हो कर ज्ञात होते हैं, इन का अपना विषय कुछ नहीं होता ।

तयोर्निष्पत्तिः प्रत्यक्ष लैङ्गिकाभ्याम् ॥ ३ ॥ ,

उन की (सुख दुख की ) िसदि प्रत्यक्ष और लैङ्गिक ज्ञान सें होती है ॥ अभिप्रेत विषय को प्रत्यक्ष करते हुए वा अनुमान से जानते हुए को मुख होता है, अक्षर अन भिमत विषय के प्रत्यक्ष और अनुमानमें दुःख की सिद्धि होती है । सो प्रत्यक्ष और अनुमान से उत्पन्न होने से मुख दुःख प्रत्यक्ष और अनुमान से भिन्न है ।

अभूदित्यपि ॥ ४ ॥

था पह धौ (अर्थात 'पर्वत में अमिथी,वाहोगी'इस मकार ज्ञान का विषय, तो भूत और भविष्पत भी होते हैं, पर सुख दुख का वर्तमान में भीविक्ष ही नहीं होता। इससे सुख दुःस्र ज्ञानरूप नहीं)