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अ. १ आ. १ सू. ८

या०-गुण का स्वभाव पहहै, कि वह कमी द्ररूप से स्वतन्त्र ही कर नहीं रहता, सदा द्रव्य के आश्रय ही रहता है, और दूसरा-अपने अन्दर कोई और गुण नहीं रखता, पह तो इस की द्रव्य से विलक्षणता है। कर्म से विलक्षणता यह है, कि कर्म संयोग विभाग में अनपेक्ष कारण होता है, जैसा कि अगले सूत्र में दिखलाएंगे और गुण सैयोग विभाग में अनपेक्ष कारण नहीं होता ।

णमिति कर्म,लक्षणम् ॥१७॥

एकं द्रव्य (में होने) वाला, गुण से शून्य, सैयोग और विभाग में अनपेक्ष कारण हो, यझे कर्म का चक्षण है । । व्या०-अवयवी द्रव्य अपने सारे अवयवों के आश्रय रहता है, संयोगादि गुण भी अनेक द्रव्यों के आश्रय रहते हैं, पर कर्म हरएक एक ही द्रव्य के आश्रय रहता है। घग्घी जब दौड़ी जतिा.हो, तो बग्घी में अपना कर्म अठा होता है, और सवारों में


  • शैकर मिश्र ने 'संयोगविभागेषु' पाठ पढ़ा है । पर यह

बहुवचन निरर्थक है।मुदित पुस्तकों में इसी के अनुखारी पाठरक्खा है, किन्तु पाठान्तर ‘संयोगविभागयोः' दिया है। न्याय मुक्तावली ौर वित्सुखी में यह सूत्र उधृत किया गया है, वहां ‘संयोगवि भागयोः' ही पाठ पढ़ा है । इसलिए यही पाठ शुद्ध है । इसी के अनुसार पूर्वसूत्र में भी ‘संयोगविभागेष्व कारण मनपेक्षः’ इस मुद्रित पाठं के स्थान 'संयोगविभागयोनैकारणमनपेक्षः पाठ इी शु है, जो इस्तलिखित पुस्तकों में मिला है ।