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अ. १ आ. १ सू. ८
'व्या०-सव वंस्तुओं मेंमतीति की ‘स सत’. ऐसी-अनु

, टंक्ति से सत्ता-निरा सामान्य ही है, विशेष नहीं। और

द्रव्यत्वगुणत्वैकर्मत्वंचवसामान्यानिविशेषाश्च ॥५॥

द्रव्यत्व, गुणत्, कर्मत्व, सामान्य भी हैं, विशेष भी हैं ।

व्यां०-द्रव्यत्व द्रव्यों में अनुष्टस्त बुद्धि का हेतु होने से |मान्प है और द्रव्याभेन्नों से व्याछत्त बुद्धि का हेतु इोने से विशेष भीडै; तथा द्रव्यत्व,पृथिवीत्व आदि जातियों की अपेक्षा से सामान्य है, और सत्ता की अपेक्षा से विशाप है । इसी प्रकार गुणत्व'कर्मत्व'भी सामान्य भी हैं, और विशेष भी*६, इसी प्रकार भागे पृथिवीत्व घटत्व आदि सारे धर्म सामान्प भी हैं, और विशेष भी हैं ।

अन्यत्रान्त्येभ्यो विशेषभ्यः ॥६॥

अन्त में होने वाले विशेषों से अतिरिक्त (सव सामान्य विशेष हैं) । .' ' । '. उपा०-अलग २'व्यक्तियों में जो विशेष घर्म हैं, वह सामान्य नहीं, विशप ही हैं।

इस प्रकार.इस सारे विश्व के एक अर्थ में भेद भी है, औरं'समानता भी है ।

स्त्रकार क्रे यत में सामान्य विशेषं और समवाप पद्यापि

पदार्थ हैं, हमारा समझने समझाने का व्यवहार इनके विना नहीं चल सकता, पर ये अर्थ नहीं। इस विश्व में जो उत्पत्ति विनाश और परिवर्तन होरहे हैं, उनमें ये कोई भाग नहीं ले रहे । इम अभिप्राय को लक्ष्य में रख कर सूत्रों का सीधा भाद्रां हम ने दिया है । किन्तु ब्याख्याकारों ने विशेष एक वतन्त्र पदार्थ