पृष्ठम्:वैशेषिकदर्शनम्.djvu/५

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भूमिका

जितने मूल पदार्थ हैं, उन में एक से दूसरे की जो विशेषता है, उस की शिक्षा दी जाय, क्योंकि ऐसा ज्ञानव्यवहार औरपरमार्थ दोनों का उपयोगी है। मनुष्य का हरएक काम इष्ट की प्राप्ति वा अनिष्ट के परिहार के लिए होता है। पर इष्ट की माप्ति और अनिष्ट का परिहार होता तव है, जब उस को उपाय का यथार्थ ज्ञान हो, और उपाय का यथार्थ ज्ञान तभी होता है, जब पदार्थो के परस्पर !ांवेशष ज्ञात हों । जिस अंश में विशेष का यथार्थ ज्ञान नहीं होता, चहीं उपाय में भूल होती है, तव मनुष्य का किया कराया काम निष्फळ चला जाता है, और कभी २ उलटा फल भी दे जाता है, सुख के लिए किया काम दुःख उत्पन्न कर देता है, संपाति के लिए किया काम विपद् में डाल देता है.। इस कारण तो पदार्थो. का यथार्थ ज्ञान व्यवहार का उपयोगी है। औौर परमार्थका उपयोगी इस प्रकार है, कि आत्मा का दूसरे पदार्थों से भद तभी जाना जा सकता है, जब यह ज्ञात हो, कि धे गुण जो आत्मा के माने गये हैं, वे उन तत्वों 'में से किसी में भी नहीं पाये जाते, जिन से शरीर वना है, और न ही ये उन तत्वों के संयोग से उत्पन्न हो सकते हैं। इस प्रकार आत्माने जानने के लिए गरे ही पदार्थों के जानने की आवश्यकता .आपड़ती है। सो व्यवहार और परमार्थ दोनों के उपयोगी विशेष प्रदर्शक दर्शन .का नाममुनिने वैशेषिक यह अन्वर्थ नाम रक्खा । . यहीइसकाथुख्यनामहै। जो कि मुनिका अपना रक्खा हुआ है। पीछे मुनि के नाम पर काणाद्दर्शन और औौलूक्य दर्शन ये दो नाम दूसरों ने इस दर्शन को दिये हैं। ।