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अ. १ आ. १ सू. ८

अ०२-आ०२ मू०८

व्या-स्वाभाविकी शीतता जलों में ही है.। शिलातल आदि में जो शीतता प्रतीत होती है, वह औपाधिकी है ।

संगति-विशेष गुणों की स्वाभाविक और” औपाधिक प्रतीति का भेद दिखला कर, अव क्रमप्राप्तकालका स्वरूपादिबतलाते हैं

अपरस्मिन्नपरं युगपत् चिरं क्षिप्रमिति काल लिंगानि ॥६॥

छोटे में छोटा, तथा, इकडे चिर, शीघ्र ये (प्रतीतियें) काल के लिङ्ग हैं।

व्या-यह इस से छोटा है, और यह बड़ा है, यह भतीति काल का लिङ्ग है। इस से छोटा' कहने का यह अभिप्राय है, कि इस का जन्म पहले का है, इस का पीछे का है, पहले पीछे से अभिप्राय जिस वस्तु से है, वही काल है । इसी प्रकार ये दोनोंघड़ेइकट्टे बने हैं। घड़े तो दोनों अलग २ हैं, पर इकडे का अभिमाय सिवाय इस के और क्या हो सकता है, कि दोनों एक काल में हुए हैं । इसी प्रकार रामकृष्ण मुझे चिर पीछे मिला है । इरिश्चन्द्र शीघ्र मिला है। ये प्रतीतियें भी चिर और शीघ्र शब्दों से जिस वस्तु का बोधन करती हैं, वही'काल है।

द्रव्यत्वानित्यत्वे वायुनाव्याख्याते ॥७॥

द्रव्यत्व और नित्यत्व वायु से व्याख्यात हैं । : व्या-वायु के परमाणु की नाई, किसी द्रव्य के आश्रित न होने से काल का द्रव्य और निस्पं होनो सिद्ध है। "

तत्त्वं भावेन ॥ ८ ॥

एकत्व सत्ता से व्याख्यात है।