वैशपिक दर्शन ।
व्पा-चैत्र को पहले जैसे देखा अर्थात् वालों वाला, दृमरे अवसर पर उस को वैसा नहीं देखा, तव फिर देखने पर यह संदह होता है, कि चैत्र सकेश है वा निष्केश है ।
विद्या विद्यातश्च संशयः ॥ २० ॥
विद्या और अविद्या से संशय होता है ।
व्या-आन्तर संशय का उदाहरण देते हैं
विद्याममा अविद्या भ्रम। जो ज्ञान होता है, वह यथार्थ भी निकलता है, और अयथार्थभी । जैसे किसी ज्योतिर्विदने एक बार जिसदिनजिस समय ग्रहण का निर्धारणकिया वह यथार्थ निकला दूसरी बार अयथार्थ निकला , तव फिर उस को अपने र्निर्धारण में संज्ञाय उत्पन्न होगा, कि मुझे यह ज्ञान यथार्थे हुआ हैं, वा अयथार्थ । ज्ञान के संशय स विषय में संशय होगा । ऐसे संशय गणित के विषय में प्रायः होते रहते हैं, इसी लिए पुरुषः दुवारा तिबारा गिनता है ।
विद्या अविद्या अर्थात् ज्ञान अज्ञान से भी संशय होता है, दूर से जल देखकर पुरुष वहां पहुंचता है, तो वहां जल पाता है, और कभी मरीचिका में जल की भ्रान्ति से प्रवृत्त हुआ नहीं भी पाता है। फिर दूर मे जळ .देखने पर संवाय होता है, कि यह ज्ञान सत्य हुआ है, वा असत्य है.। इसी प्रकार विद्यमान भी जल का ज्ञान नहीं होतानारियल में, औरअसत्य है ही नहीं। अब कहीं जल-के अज्ञान में. संज्ञाय होता है, किं क्या नहीं है, इस लिए नहीं दीखता है, वा है, तौ भी नहीं दीखता है।