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अ. १ आ. १ सू. ८

संगति-इस प्रकार परीक्षा के अंग संशय का व्युत्पादन'करके, परीक्षणीय शब्द की परीक्षा आरम्भ करते हैं

श्रोत्रग्रहणीयोऽर्थः सं शब्दः ।२१ ।

श्रोत्र से ग्रहण किया जाता जो अर्थ है, वह शब्द है ।

सगति-शब्द को आकाश का लिङ्ग सिद्ध करने के लिए पहळे शब्द का गुण होना परीक्षापूर्वक सिद्ध करते है

तुल्यजातीयेष्वर्थान्तरभूतेषु विशेषस्योभय थाद्वष्टत्वात् ॥ २२ ॥

तुल्य जाति'ालों में और दूसरें अर्थो में उभयत्र विशेष के न देखा हुआ होने से (संशय उत्पन्न होता है)

व्या-शब्द में जो श्रोत्रग्राह्यता दूसरों से विशेषधर्म है । यह विशेष न उस के सजातियों में पाया जाता है, न दूसरे अर्थो में अर्थात् विजातियों मैं । शब्द को यदि गुण करें, तो , दूसरे गुण उस के सजातीय हॉगे, श्रोत्र ग्राह्यता उन में से किसी में है नहीं, िजस से इस को भी तद्वत् गुण मान लें, और विजा

तीप'होंगे द्रव्य और कर्म ।'उन में से भी श्रोत्रग्राह्यता किसी

में है नहीं, जिससे इस को तद्व.द्रव्य वा कर्ममाना जाय । इसी तरह शब्द को द्रव्य माना जाय, तो सजातीय द्रव्य होंगे और विजातीय गुणकर्म, और कर्म मानें-तो सजातीय कर्म होंगे, और विजातीय द्रव्य गुण, सर्वथा श्रेोत्रग्राह्यता सजातीय 'विजातीय दोनों में अदृष्ट होने से निश्चय नहीं हो सकता है कि शब्द द्रव्य है वा गुण है वा कर्म है। इस लिए शब्द द्रव्प है. यण छै.-चा कर्म है, यह संज्ञाय उत्पन्न होता है ।