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अ. १ आ. १ सू. ८

ऋचा उसी समय नाश हो जाय, तो उस का तीन वांर उच रण कैसे हो, तीन चार उच्चारण की आज्ञा देने से सिद्ध है, कि ऋचा स्थिर बनी रहती है ।

  • सम्प्रतिपंक्तिभावांच ॥ ३५ ॥

प्रत्यभिज्ञा कें होने से (भी नित्य है)

व्या-पहले अनुभव किये हुए की पहचान को प्रत्यभिज्ञा कहते है । यह प्रत्यभिज्ञा शब्द के विषय में-'चैत्र उसी गाथा को उचार रहा है, जो मैत्र ने उचारी थी ? 'यहं'उंसी'श्लोक को चार-२ पढ़ रहा है ? 'जो वाक्य तूने पर और परार कहा था उसीको अवतू फिर कह रहा है. यह वही 'ग'है, इस प्रकार होती है।इस अवाधित प्रत्यभिज्ञा के बलं से शब्दनित्य सिद्ध होता है। संगति-इन सब हेतुओं में दोष दिखलातें है

संदिग्धाः सति बहुत्वे ॥ ३३ ॥

संदिग्ध हैं वहुत्व के होते हुए ।

व्या-ये सारे हेतु संदिग्ध हैं, व्यभिचारी हैं, क्योंकि जैसे एक ही स्थिर शब्द मानने मे ये हेतु घट सकते हैं। वैसे नाना मानन में भी घट सकते हैं। जैसे नाचं । सिखाने वाले का नाच अलग होता है, सीखने वाले का अलग । तौ भी सीखना सिखाना होता है । जैसे यहां सीखने का यह अर्थ नहीं, किं गुरु अपनी नृत्य शिष्यं कृो देता है, और शिष्य लेता है, किन्तु यह अर्थ है, कि शिष्य गुरु के नृत्य का अनुकरण करता है, इसी तरह पढ़ने में भी शिष्य गुरु के शब्दों का अनुकरण ही करता है। इसी प्रकार एक ही नाच तीन वार नाचने की नाई