व्या-किसी द्रव्य का एक कार्य उसी द्रव्य के दूसरे कार्य का लिङ्ग होता है । जैसे गन्ध रस का लिङ्ग है । घने से जिसका गन्ध अनुभव हो, चखने से उस का अवश्य रस भी अनुभव होगा । क्योंकि गन्ध पृथिवी का कार्य है, और रस पृथिवी में अवश्य रहता है। यही एकार्थसमवायि लिङ्ग है । अर्थात् गन्ध जो लिङ्ग है और रस जो साध्य है, ये दोनों एक वस्तु में समवत हैं।
संगति-धिरोधि लिङ्गके भिन्न २ प्रकार के उदाहरण देते हैं
विरोध्यभूतं भूतस्य ॥ ११ ॥
विरोधि (लिङ्ग है) न हुआ हुए का (जैसे चरसने वाली घटा के आने पर न हुई दृष्टि आकाश में हुए प्रतिवन्धक वायु संयोग का लिङ्ग है )
- भूतमभूतस्य ॥ १२ ॥
हुआ न हुए का (जैसे हुई दृष्टि न हुए मतिबन्धक वायु संयोग का लिङ्ग है)
भूतो भूतस्य ॥१३॥
हुआ हुए केा (जैसे विलक्षण फंकार करता हुआ सर्प झाड़ी में विद्यमान नेउले का विरोधि लिङ्ग है)
संगति-इन हेंतुओं के सद्धतु होने का नियामक दिखलाते है
प्रसिद्धिपूर्वकत्वादपदेशस्य ॥ १४ ॥
व्याप्ति के अधीन होने से लिङ्ग के ।
व्या-लिङ्ग का ज्ञान व्याप्तिज्ञान् के अधीन होता है ।