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अ. १ आ. १ सू. ८

दूसरे इन्द्रिय का विकार, सुख, दुःख, इच्छा,द्वेष और मयत्र भी आत्मा के लिङ्ग है।

व्या-(१)वायुका स्वाभाव टेढाचळना है, पर शरीर में वायु नीचे और ऊपर चलता है, इस से सिद्ध है, कि इस वायु का चालक कोई और है, वही आत्मा है, जो धौंकनी से लुहार की नाई वायु को भरता और छोड़ता रहता है, (२) आँख पर वाहर से कोई प्रभाव पड़े विना भी जो आंख मिचती और खुलती रहती है, इस से सिद्ध है, कि पुतली के नाचने की नाई अन्दर बैठा ही कोई तार हिलाकर आंख को नचा रहा है, (३) जीवन-जीवन का कार्य वृद्धि आदि। जिस प्रकार घर का स्वामी घर को बढ़ाता है, और टूटे फूटे की मरम्मत करता है । इसी प्रकार इस शारीर की वृद्धि और क्षत का भरना इस बात के चिन्ह हैं, कि शरीर रूपी घर का भी एक अधिष्ठाता है, (४) जो विषय जानने की इच्छा हो, उसी इन्द्रिय में मन की गति इस वात का चिन्ह हैं, कि मन का भेरक आत्मा है, जैसे घर में वैठा वालक गेंद को अपनी इच्छानुसार इधर उधर फैकता है, वैमे मन को अपनी इच्छानुसार जहां चाहता है, वहां भेजता है (६) दूसरे इन्द्रिय का विकार जैसे-इम्ली को देख कर उस के रस का स्मरण करके जिव्हा से लाल टपक पड़ती है। अब याद नेत्र ही देखने वाला हो, तो यह लाल नहीं टपक सकती, क्योंकि नेत्र जो देख रहा है, उस को तो रस का पता ही नहीं, और रसना, जिस ने रस लियाहुआ हैं, वह देख ही नहीं रही, इस लिए ललचा नहीं सकती, पर ललचा गई है, इस से स्पष्ट है,;कि नेत्र और रसना दोनों से