वैशेषिकदर्शन ।
परे एक आत्मा है, जिसने पहले रसना द्वारा'उसकारस अनुभव किया हुआ है, और अव उस के रूप को देखकर उस के रस का स्मरण आ गया है, वही ललचाया है, उसी केललचाने से मुंह में पानी भर आया है (६) सुख, दुःख, इच्छाद्वेष और भयत्र"यह भी ज्ञान की नाई आत्मा के लिङ्ग है। क्योंकि ये गुण विशेष भी शारीर में कारण गुणपूर्वक नहीं आए, इस लिए अवश्य.ये धर्म शरीर में वस्त्र में पुष्पगन्ध की नाई किसी द्रव्यान्तर के ही प्रतीत होते है, वही द्रव्यान्तर आत्मा है ।
तस्य द्रव्यत्वनित्यत्वे वायुना व्याख्याते ॥५॥
उस का द्रव्य और नित्य होना वायु से व्याख्यात है।
सं-इस अनुमित द्रव्य का नाम करण भी वायुवत् दिखलाते हैं (देखो पूर्व २ । १ । १५-१७)
यज्ञदत्त इति सन्निकर्षे प्रत्यक्षाभावाटू दृष्टं लिंगं न विद्यते ॥ ६ ॥
(पूर्वपक्ष-) सम्वन्ध होने पर यह यज्ञ दत्त है (यज्ञ दत् का आत्मा है) इस प्रकार प्रत्यक्ष न होने से (आत्मा की सिद्धि में) दृष्ट लिङ्ग नहीं है।
सामान्यते दृष्टाचाविशेषः ॥ ७ ॥
और मामान्यतो दृष्ट (लिङ्ग ) से अविशप सिद्ध होता है, ( कि ज्ञान आदि का आश्रय कोई द्रव्य है, न कि आत्मा है)
तस्मादागमिकः ॥ ८ ॥
इस लिए ( आत्मा का विशेष रूप ) भागम सिद्ध है । ७८