भी वह शरीरसे अलग है, इसमें अप्रामाण्य शैका बनी रहती है,
जव ज्ञानादि लिङ्ग द्वारा शरीर से अलग आत्मा का अनुमान
होता है, तव प्रत्यक्ष की अप्रामाण्य शैका दूर हो कर वह भतीति
दृढ़ हो जाती हैं। जैसे अन्यत्र प्रत्यक्ष में देखा जाता है, कि
जवदूरसंजल कीमत्पक्ष देखकर अप्रामाण्य शकाउठं, कि कदा
चित मूगतृष्णा ही न हो, तब बगले आदि लिङ्ग को देखकर
जल का अनुमान होने पर इस संवादी ममाण से पहले ज्ञान में
प्रामाण्यज्ञान हो जाने से वह शैका मिट जाती है। इसी प्रकार
आत्मप्रत्यक्ष में भी उलटी संभावना (केि शरीर ही आत्मा न
हो ) से उस ज्ञान में अप्रामाण्य शंका होती है, तव अनुमान से
उसी का ज्ञान होने पर, इस सैवादि प्रमाण से वह ज्ञान दृढ़ हो
जाता है । ऐसे स्थल में, जहां अनुमान के विना प्रत्यक्ष दृढ़
निश्चय न कराए, प्रत्यक्ष के होते हुए भी अनुमान आवश्यक
होता है, अतएव वाचस्पतिमिश्र लिखते हैं-‘प्रत्यक्ष परिक
लित मप्यनुमानेन बुभुत्सन्त तर्करासिकाः' मत्यक्ष से जाने हुए
को भी तर्क के रसिक अनुमान से जाना चाहते हैं।
सै-“मैं देवदत्त हुँ' यह प्रतीति यदि आत्मविषयक है, * तो देवदत्त जाता है' यह प्रतीति और व्यवहार कैसे बनेगा, क्योंकि दूसरे तो उस के शरीर को ही गतिमान् देखते है, इस आशंका का उत्तर देते हैं
देवदत्तोगच्छति यज्ञदत्तोगच्छतीत्युपचारा च्छरीरे प्रत्ययः ॥ १२ ॥
देवदत्त जाता है, यज्ञदत्त जाता है, यह उपचार (लक्षणा) से शारीर में भतीति होती है (मुख्य भतीति देवदत्त पद की