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अ. १ आ. १ सू. ८

प्रत्यक्ष होता है 'मैं जानता हूं' ऐसे ही सुख आदि भी प्रत्य होते हैं 'मैं सुखी हूं, मैं दुःखी हूं' 'मैं इच्छा करता हूँ? 'मैं यत्र करता हूँ' । ऐसे ही शारीर के प्रत्यक्ष में भी ज्ञान आदि का प्रत्यक्ष हो, याद शरीर ज्ञानादिगुण वाला हो और अहं प्रतीति का विषय हो। “मैं जो स्थूल हूं, वह मैं जानता हूं' ऐसी प्रतीति किसी को नहीं होती किन्तु केवल ज्ञानाद के प्रत्यक्ष में केवल अहं मतीति ही होती है, इस लिए * अहं' प्रतीत का मुख्य विषय आत्मा ही है, अतएव शारीर में ही अहं प्रयोग औपचा रिक है । अहमिति मुख्ययोग्याभ्यां शब्दवद् व्यंतिः रेका व्यभिचाराद् विशेषसिद्धर्नागमिकः ॥१८॥

‘अहं’ यह मुख्य और, योग्य होने से शब्द की नाईअभाव कें अव्यभिचार, सें विशेष की सिद्धि होने से केवल आंगम सिद्ध नहीं ।

व्या-(उपसंहार करते हैं-) सो 'अहं ? इस प्रतीति का मुख्य विषय आत्मा ही है,वही इसमतीत के योग्य है, क्योंकि जिस ने आंख मींची हुई है, उस को भी‘अहं’ प्रतीत होती है। अतएव ‘अहं’ वह है, जो आंख काविषय नहीं । सो एक तो'अहं’ इसप्रतीति से आत्मा की विशेषसिदिसे, और दूसरा जैस पृथिवी आदि आठ द्रव्यों में शब्द का अभाव अव्यभिचारी (नियत) है, इस लिए आठ द्रव्यों से अतिरिक्त आकाश की सिद्धि होती है, इसी प्रकार, अहं प्रतीत का अभाव आठ द्रव्यों में अव्यभिचारी होने से आठ द्रव्यों से अतिरिक्त. आत्मा की