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अ. १ आ. १ सू. ८

पिता'के अभाव में'ऋषि मनुष्यों की उत्पत्तिकाकयन-अंयोनिज उत्पत्ति का ज्ञापक है।

पञ्चमः अध्याय-प्रथम अॉद्विक :।

सैगति-द्रव्यों की परीक्षा की, अबक्रमागत गुण परीक्षणीय हैं, किन्तु अल्प होने से पहले कम की परीक्षा आरम्भ करते हुए प्रयत्र जन्य उत्क्षेपण को लक्ष्य करके कहते है

आत्मसंयोगप्रयलाभ्यां हस्तकर्म ॥ १ ॥

  • “ आत्मा के मैयोग और प्रयत्र से हाथ में कर्म (होता है)

तथाहस्तसंयोगाच मुसले कर्म ॥ २ ॥

और वैसे ( कर्म.वाले ) हाथ के सैयोग सें मूसळ में कर्म (होती है)।

व्या-प्रयत्र आदि की उत्पत्ति का क्रम यह है ' आत्म जन्या भवदिच्छा इच्छाजन्या भवद कृतिः । कृतिजन्या भवेचेष्टा तज्जन्यैव क्रिया भवेत् ? आत्म में इच्छा उत्पन्न होती है, इच्छा से प्रयत्र उत्पन्न होता है. प्रयत्र से ( मारे शरीर में वा किसी एक अङ्ग में) चेष्टा उत्पन्न होती है. ",चष्टा मे क्रिया-उत्पन्न होती है। यहां प्रकृत में:पहले आत्मा में मूमलउठाने की इच्छाउत्पन्न आत्मा के संयोगसे हाथ में (ऊपर की औीर) चेष्टा-उत्पन्न हुई,

उस चेष्टा से मूसल में ( उत्क्षेपण ' क्रिया उत्पन्न हुई। इसी

क्रम मे नीचे लाते समय ( अवक्षेपण । क्रियाः उत्पन्न होती है।

अभिघातजेमुसलादौ कर्मणिव्यतिरेकादःकारणं हस्तसंयोगः ॥ ३॥