२२२ श्री शिवस्तोत्रावली अक्रम- = क्रम से नहीं ( अर्थात् | अधिगीतम् = निववाद रूप से ८ एक-एक करके नहीं, बल्कि एक साथ ही अर्थात एक ही क्षण में ) आवाल = मूर्खो अर्थात् ज्ञानियों तक से भी ( अर्थात् केवल ज्ञानियों से हो नहीं, बल्कि समाक्रान्त = पूर्णरूप में व्याप्त = किया है से भी ) समस्त = सम्पूर्ण भुवनत्रय = त्रिभुवन ( अर्थात् तीनों को जिसने लोकों ( सर्वात्मा ) ! ऐसे = आपकी जय हो । जय गीयमान = सदा गाया जाता ईश्वर = 'ईश्वर' नामक ध्वने = शब्द ( अर्थात् नादामर्श ) जिस का, ऐसे ( सर्वाशय प्रभु ) | जय = आप की जय हो ॥ १४ ॥ - संद्रिभागा सम्यगाकान्तं - व्याप्तं समस्तं निरवशेषं प्राग्वद्भवनत्रयं येन | विष्णु क्रमाभ्यां भूर्भुवः स्वान्तष्टितं, भगवता क्रममेव भवाभवानिभवरूपं भुवनत्रयं व्याप्तम् - इति व्यति- रेकध्वनिः | अविगीतम् - अविप्रतिपत्तिं कृत्वा आबालं गीयमान ईश्वर इति ध्वनिः– नादामर्शो यस्य ।। १४ ।। जयानुकम्पादिगुणानपेक्षसहजोन्नते। जय भीष्ममहामृत्युघटनापूर्वभैरव ॥ १५ ॥
- भावार्थ - हे भगवान् ! वामन अवतार धारी विष्णु ने क्रम से अर्थात्
एक-एक करके तीनों लोकों को व्याप्त किया, अर्थात् पहले कदम से पृथ्वी को, दूसरे से देवलोक को और उसके बाद तीसरे से पाताल को माप डाला अर्थात् व्याप्त किया । आपने तो एक साथ ही अर्थात् एक ही क्षण में भव ( जाग्रत सम्बन्धी ), अभव ( स्वप्न सम्बन्धी ) और [[अतिभव ( सुषुप्ति सम्बन्धी ) तीन लोकों को अर्थात् समस्त संसार- मण्डल को अपने चिदानन्दमय स्वरूप से व्याप्त किया है। तभी तो नाम 'सर्वात्मा' सार्थक है ॥ १४ ॥ १ ख० पु० साक्षाद्विभातत्वात् - इति पाठः । २ घ० पु० क्रमेण – इति पाठः । ३ ६० पु० भवाभवातिभवत्रयम् - इति पाठः ।